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22 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 2 / अप्रैल-जून 2012 सके उसे उपाध्याय कहते हैं। भिक्षुआगम कोश के अनुसार सूत्रार्थ के ज्ञाता तथा सूत्रार्थ द्वारा शिष्यों के निष्पादन में जो कुशल हो, उसे उपाध्याय कहते हैं। मूलाचार के अनुसार जिसके पास जाकर अध्ययन किया जाय उसे उपाध्याय कहते हैं। यह संस्कार भी योग्य आचार्य द्वारा कराया जाता था जिसमें शिष्य को द्वादशांगी का अध्ययन कराया जाता था। (9) आचार्य पदस्थापन विधि- आवश्यकनियुक्ति के अनुसार जो पाँच प्रकार के आचारों- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का स्वयं अनुपालन करते हैं, उनके पालन का उपदेश व प्रशिक्षण देते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। कोशग्रन्थ के अनुसार साधुओं की शिक्षा-दीक्षादायक, दोष-निवारक तथा अन्य विशिष्ट गुणों के संघनायक को आचार्य कहा गया है।" इस संस्कार के प्रायोजन का मुख्य उद्देश्य संघ व्यवस्था का भार योग्य मुनि को सौंपना था। यह संस्कार विशेष नक्षत्र मुहूर्त में किया जाता था। (10) प्रतिमोद्वहन संस्कार- जैन परम्परा में प्रतिमा शब्द से तात्पर्य प्रतिज्ञा, नियम से है। इस संस्कार का उद्देश्य मन, वचन व काय की दुष्प्रवृत्तियों का त्याग करना था। अतः साधना के इच्छुक श्रमण व श्रावक को प्रतिमा व्रत का पालन करना आवश्यक था। इससे सम्बन्धित समस्त क्रियाएँ मुनि स्वयं ही करता था। (11) साध्वी दीक्षा सम्बन्धी विधि- मुनियों की भाँति श्रमणियों के लिए भी संस्कार आयोजित किये जाते थे। यह संस्कार आचार मुनियों द्वारा आयोजित किया जाता था, किन्तु वेशदान, चोटी लेना आदि वरिष्ठ साध्वियों द्वारा कराया जाता था। स्त्री को भी दीक्षा लेने के पूर्व अपने संरक्षक (माता-पिता) की अनुमति लेना आवश्यक था। दीक्षा के पूर्व में कुछ नियमों से अवगत कराया जाता था, तत्पश्चात् दीक्षा प्रदान की जाती थी। सुकुमालिका ने भी गोपालिका आर्या से दीक्षित होकर संघ में प्रवेश किया था। (12) प्रवर्तिनी-पदस्थापन विधि- साध्वी समुदाय का प्रवर्तन करने वाली साध्वी को प्रवर्तिनी कहते थे। इनका मुख्य कार्य साध्वियों को वाचना प्रदान करना था। स्थानांगसूत्र के अनुसार साध्वियाँ (प्रवर्तिनी) अन्य योग्य साध्वियों को प्रवर्तिनी-पद पर नियुक्त कर सकती थीं। यह संस्कार भी विधि-विधान से शुभ-नक्षत्र व तिथि में आयोजित किया जाता था। (13) महत्तरापदस्थापन विधि- महत्तरा शब्द से तात्पर्य प्रधान व मुखिया से है। श्रमणी संघ की प्रमुख साध्वी को महत्तरा कहा जाता था। इसमें साध्वी को महत्तरा-पद पर नियुक्त करने के पूर्व विधि-विधानों से अवगत कराया जाता है।