Book Title: Sramana 2012 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 33
________________ 26 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 2 / अप्रैल-जून 2012 आध्यात्मिक जीवन हेतु प्रासंगिक थे, वरन् आधुनिक समाज हेतु भी प्रासंगिक हैं। प्रत्येक संस्कार की प्रासंगिकता भिन्न-भिन्न है। वर्तमान में मातृ-शिशु मृत्यु दर बढ़ता जा रहा है जिसका कारण माता व शिशु की देखरेख का समुचित अभाव है। यद्यपि इसके लिए सरकार द्वारा कई योजनाएँ चलायी जा रही हैं जो पूर्णतया सफल नहीं है। गर्भाधान व जन्म संस्कार- ये दोनों गर्भस्थ शिशु व माता को संरक्षण प्रदान करते हैं। वर्तमान में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से शिशु में परोपकार, सौम्यता, दया, दान आदि गुणों का अभाव होता जा रहा है। सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार से बालक को बाह्य जगत् से परिचित कराकर उसमें इन गुणों का विकास किया जाता है। षष्ठी संस्कार माता के मूल एवं महत्त्व को स्पष्ट करता है। नाम व्यक्ति पर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। कई बार व्यक्ति की सफलता का माध्यम भी उनके नाम होते हैं। वर्तमान में दम्पति दिखावे के प्रभाव में आकर कोई भी नाम रख देते हैं। नामकरण संस्कार के माध्यम से शिशु का नामकरण शुभ-नक्षत्र और गुणों के आधार पर रखा जाता है जिससे उनका भावी जीवन उज्ज्वल होता है। वर्तमान में शिशु कई प्रकार के भयावह रोग से जकड़ता जा रहा है। अन्नप्राशन संस्कार जहाँ शिशु में आहार-विवेक का विकास करता है, वहीं कर्णवेध संस्कार उन्हें रोगों से मुक्त रखता है। वर्तमान में गुरु-शिष्य सम्बन्ध भी कटु होता जा रहा है, जिसका मुख्य कारण गुरु की पुरानी विचारधारा व विद्यार्थी की आधुनिक विचारधारा है। इस संस्कार से गुरु-शिष्य के मध्य मधुर सम्बन्ध पूर्ववत् कायम रहता है। वर्तमान में गृहस्थों को मर्यादित, सुरक्षित रखने के लिए यह संस्कार प्रेरणा जागृत करता है। मानव जीवन में यह संस्कार नहीं होता तो शायद वर्तमान में हमें भाई-बहन, माता-पिता के मध्य जो मर्यादित और सम्मानित सम्बन्ध दिखते हैं वे नहीं दिखते। इसी प्रकार व्रतारोपण संस्कार व्यक्ति में अहिंसा, सत्यवादिता तथा ईमानदारी की भावना विकसित करता है अर्थात् व्यक्ति में नीतिपरक मूल्यों का विकास करता आधुनिक युग में व्यक्ति में एकाग्रचित्तता (ध्यान) का अभाव होता जा रहा है। व्यक्ति में अध्यात्म, एकाग्रचित्तता की किरणों को प्रस्फुटित करने में इस संस्कार की सराहनीय भूमिका है। प्रव्रज्या संस्कार शिशु को सभी प्रकार के व्रतों के निर्वहन का बोध कराते हैं तथा योगोद्ववहन विधि आत्मसुख की भावना विकसित करती है। श्रमण-श्रमणियों, के जीवन में स्थिरता, मानसिक शक्ति व अनुशासन का विकास आचार्यपदस्थापन से सम्भव है। इसी प्रकार समाज में व्याप्त हिंसा, अशान्ति व अपराध जैसे बुरे कर्मों का त्याग भी इसमें निहित है।

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