Book Title: Sramana 2012 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ समवायांगसूत्र में पाठभेदों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ : 11 परन्तु इसनियम पालन के अभाव में किट्ठी के बदले किट्ठि(कृष्टि)भी दिखाई देता है161 कभी-कभी धातुरूपों में भी हस्व इ को दीर्घ ई दिखाई पड़ता है, जैसेपकुव्वति(इ)- पकुव्वती(ई)162 मारेइ- मारेई. पहणइ- पहणई163 भासति-भासई4 ,कुणइ- कुव्वई165 28.भेद और उपभेद सहित वर्गीकरण- किसी-किसी पाण्डुलिपि में किसी विषय का सामान्य वर्गीकरण उल्लिखित है तो किसी-किसी में सूक्ष्मवर्गीकरण जो प्रायः पाठभेद का कारण बना है। उदाहरणस्वरूप, ग्रैवेयक विमान के तीन वर्गीकरण हैं -शीर्ष, मध्यम और अधः। इन तीनों के भी उपभेद हैं- शीर्ष, मध्यम और अधः। उवरिमगेवेज्जयाणं - उवरिमउवरिमगेवेज्जयाणा मज्झिमगेवेज्जयाणं - मज्झिममज्झिमगेवेज्जयाण167 - मज्झिमगेवेज्जयाणं - मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जयाणं 168 - हेट्ठिमगेवेज्जयाणं-हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेज्जयाण!69 . 27. विवरण का विस्तार - किसी पाण्डुलिपि में विषय को स्पष्ट करने के लिए विशेषणात्मक शब्दों को जोड़ देने, किसी में सभी उपभेदों के अन्त में एकबार उस विषय का नाम देना तो किसी में हर उपभेद के साथ देने भी पाठ-भेद हो जाते हैं, जैसे, मनुयाणं - सन्निमणुयाणं (संज्ञी विशेषण अतिरिक्त)170 असुरिन्द- असुरकुमारिन्द(कूमार विशेषण अतिरिक्त) भवसिद्धिया-भवसिद्धिया जीवा'72 तणपरीसहे- तणफास परीसहे 173 कम्माणं एकूणसत्तरि- कम्म्पगडीणं एकूणसत्तरि174 महापायाला- महापायालकलसा175 सुरगमण- सुरगतिगमण 176 जीवपोग्गलात्थिकाए- जीवत्थिकाए जीवपोग्गलात्थिकाए'77 कोहमाणाणताणुबंधी- कोहे अणंताणुबंधी माणे अणंताणुबंधी78 यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी ग्रन्थ की पाण्डुलिपियों में उपलब्ध प्रत्येक पाठान्तर का सूक्ष्म विवेचन एक लेख में समाहित करना संभव नहीं है। इस लेख में पाठभेद के केवल मुख्य कारणों के विवेचन का प्रयास किया गया है। न के बदले ण, इ-ति, क के बदले ग जैसे सैकड़ों अन्तर, वर्तनी

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