Book Title: Sramana 2012 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ समवायांगसूत्र में पाठभेदों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ : 3 8. संख्यावाचक शब्दों के रूपों की बहुलता . 9. संयुक्त व्यंजन के पूर्व दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व की वैकल्पिक प्रवृत्ति 10. संज्ञा (नाम) भेद 11. सन्धि के नियम-प्रयोग में शिथिलता 12. प्राकृत में समान-विभक्ति और वचन के रूपों की बहुलता 13. वर्णों की आकृतिगत समानता 14. लेहिया में विषय की अज्ञानता 15. पूर्ण और अपूर्ण नाम का प्रयोग 16. क्रिया-बहुवचन-एकवचन 17. क्रिया-वर्तमान- भविष्य 18. एक क्रिया के प्राकृत में कई आदेश 19. समानार्थक क्रियाओं का प्रयोग 20. धातुओं के रूपों की बहुलता 21. द्वित्व की प्रवृत्ति 22. शब्दों का सामासिक प्रयोग और विभक्ति के साथ प्रयोग 23. विभक्ति में अन्तर 24 समूहवाचकसंज्ञाओं का प्रयोग 25. अर्थ-परिवर्तन 26. वर्तनी दोष 27. विवरण का विस्तार 1. जाव प्रायः विस्तार से बचने के लिए जो वर्णन उसी ग्रन्थ में या कभी-कभी अन्य ग्रन्थ में पहले आ चुका है उसकी पुनरावृत्ति से बचने के लिए आरम्भ और अन्त के शब्दों के मध्य जाव (यावत्) शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर मिलता है। कुछ हस्तप्रतों में जाव के पहले और बाद में अधिक और कम शब्दों का प्रयोग हुआ है तो कुछ में जाव का प्रयोग न कर पूरा वर्णन दे दिया गया है। यह स्थिति कई स्थलों पर पाठ-भेद पाये जाने का प्रमुख कारण बना हैजाव अंतं करेस्संति -जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति।' अजित संभव जाव पासो वद्धमाणोअजित संभव अभिणंदण सुमई जाव पासो वद्धमाणो।' उसभ अजित जाव वद्धमाणे -

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