Book Title: Sramana 1994 10 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 3
________________ भारतीय दर्शन में मोक्ष की अवधारणा - डॉ० राजीव प्रचण्डिया प्रायः प्रत्येक भारतीय दर्शन के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु आत्मस्वरूप की प्रतीति एवं प्राप्ति है । वह संसारी जीव के अन्तिम लक्ष्य / साध्य के स्वरूप को निर्धारित कर उसकी प्राप्ति के लिए साधन / उपाय बताता है। यह सत्य है कि समस्त आस्तिक दर्शनों का साध्य तो एक ही है किन्तु साधना मार्ग में किंचित भिन्नता अवश्य है । मोक्ष की कल्पना सभी आस्तिक दर्शनों में हुई है। उन्होंने अपने-अपने ढंग से उसके स्वरूप का निरूपण भी किया है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग तथा बौद्धदर्शन में दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मोक्ष माना गया है।' बौद्धों की मान्यतानुसार मोक्ष में दुःख का अभाव है किन्तु शाश्वतसुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । वेदान्त के मत में जीवात्मा तथा परमात्मा का मिलन मोक्ष है। 2 इनके मत में मोक्ष में शाश्वत सुख की प्रधानता है, दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति मोक्ष हो जाने पर स्वतः ही हो जाती है। 3 इस प्रकार इन समस्त दर्शनों ने मोक्ष को सुख की उपलब्धि अथवा समस्त सांसारिक दुःखों की निवृत्ति के रूप में स्वीकार किया है, किन्तु मोक्ष के साधना मार्ग के सम्बन्ध में ये सभी दर्शन. एकमत नहीं है। नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शन प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त करने को ही मोक्ष का साधन मानते हैं, जबकि सांख्य और योग दर्शन के अनुसार प्रकृति-पुरुष के विवेक या भेद - विज्ञान से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। वेदान्त दर्शन अविद्या और उसके कार्य से निवृत्ति को मोक्ष का साधन स्वीकार करता है। बौद्धदर्शन तप के अनुसार संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं शून्यमय समझना ही मोक्ष का साधन मानता है । 4 बौद्धदर्शन तप की कठोरता तथा विषयभोगों की अतिरेकता की अपेक्षा मध्यममार्ग अपनाने पर अत्यधिक बल देता है। इस प्रकार उपर्युक्त सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति को मोक्ष का साधन मानते हैं जिनकी साधना से संसारी जीव मोक्ष पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। 5 जैनदर्शनानुसार सम्पूर्ण कर्मों का क्षय / उच्छेद होना ही मोक्ष है । " मोक्ष की प्राप्ति पर यह संसारी जीव बार-बार जन्म-मरण से अर्थात् सांसारिक सुख-दुःख से पूर्णतया मुक्त हो अपने विशुद्ध-स्वरूप में रमण करता हुआ अनन्त आनन्द का अनुभव करता है। जैनदर्शन के अनुसार मुक्तात्मा न तो वेदान्त दर्शन की भाँति ब्रह्म में लीन होता है और न ही सांख्य दर्शन की भाँति प्रकृति को तटस्थ भाव से देखता रहता है और न ही नैयायिकों के ईश्वर के समान वह इस जगत् का निर्माता या ध्वंसकर्ता अथवा प्राणियों का भाग्य-विधाता बनता है अपितु जगत् / संसार से पूर्णतः निर्लिप्त होकर अपने ही ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप में स्थित हो जाता है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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