Book Title: Siri Santinaha Chariyam
Author(s): Devchandasuri, Dharmadhurandharsuri
Publisher: B L Institute of Indology

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ गंथसमप्पणं मुनि-गुणि-वइवरभावा इसि-समया-संति-खंतिभावा य । देहत्था जेसिं दंसणेण दीसंति संताणं ॥१॥ आयरियभदंताणं तेसिं सुग्गहियनामधेज्जाणं । धेज्जाइगुणगणाणं विजयाइसमुद्दसूरीणं ॥२॥ निग्गंथाणं करकमलकोसमज्झम्मि एस गंथवरो । पारोक्खं अप्पेमि अहयं सीसो य बालो य ॥३॥ मुणिधम्मधुरंधरनामओ विणीओ हिएक्ककंखाओ। भत्तिब्भरनमियंगो नमिऊणं पयजुयं विमलं ॥४॥ चउहि कलावयं भदं सरस्सईए, भदं पुण गुरुसमुद्दसूरीणं । भई सयवंताणं, भदं समणस्स संघस्स ।।५।। जिस संत के दर्शन से मुनि, गुणी, श्रेष्ठव्रती, ऋषि, समता, शान्ति एवं क्षान्ति के भाव देहस्वरूप दिखते हैं ऐसे पुण्यनामधेय धैर्यादिगुणगणों के पुञ्जस्वरूप निर्ग्रन्थ आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय समुद्रसूरीश्वरजी महाराज के परोक्ष विमल चरणयुगल में प्रणाम करके भक्तिभाव से नम्र बने अंगों वाला, शिष्य और बालस्वरूप मैं विनीत मुनि धर्मधुरंधरविजय एकमात्र आत्महित की आकांक्षा से यह श्रेष्ठ ग्रन्थ उन्हींके करकमलों में अर्पित करता हूं। सरस्वती देवी का कल्याण हो, गुरुदेव विजयसमद्रसूरिजी महाराज का कल्याण हो, श्रुतधरों का कल्याण हो और श्रमणसंघ-चतुर्विध संघ का कल्याण हो ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 1016