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प्रस्तुत ग्रन्थ की एवं स्वयं के द्वारा विरचित मूलशुद्धिप्रकरणविवरण की प्रशस्ति में लिखित गुरुपरम्परागत महापुरुषों की जीवनसाधना, कृतित्व आदि के अध्ययन से कहा जा सकता है कि बहुत सारी विशेषताएं इन्हें गुरुपरम्परा से ही प्राप्त हुई थीं। पंन्यास प्रवर मुनिराज श्री प्रद्युम्नविजयजी महाराज द्वारा लिखित प्रस्तावना में पूज्य आचार्य श्री जी से सम्बन्धित जीवनप्रसंगों के अध्ययन से यह बात नि:संशय रूप से कही जा सकती है कि वे वनस्पतिशास्रों, वानस्पतिकप्रयोगों, रसायनों आदि विषयों के प्रयोगविद्, प्रयोगकृद् महापुरुष थे । व्यक्ति के वर्तमान, भूत और भविष्यकाल को जानने वाली ज्योतिष या अन्य किसी ऐसे ही विषय या विद्या के सिद्धज्ञाता महापुरुष थे। वे मन्त्रसिद्ध आराधक महापुरुष तो थे ही सम्भवत: वे अनेकों तन्त्रों के भी ज्ञाता हों । अस्तु । ग्रन्थकार आचार्य श्री जी के विषय में कुछ जानकारी प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना एवं अन्यान्य ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त की जा सकती है । इनके द्वारा विरचित दोनों ग्रन्थों अर्थात् मूलशुद्धिप्रकरणविवरण और प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययन से कहा जा सकता है कि इनका वैदुष्य अप्रतिम था, इनका
आगम एवं आगमेतर विषयों, षड्दर्शनों तथा लोकप्रणालिकाओं का ज्ञान गहन था । जैसा इनका संस्कृतभाषा पर प्रभुत्व था वैसा ही प्राकृत और अपभ्रंशभाषा पर भी प्रभुत्व था । इनके द्वारा विरचित दोनों ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण के नियमों से नए नए शब्दों के निर्माण एवं भिन्न भिन्न छन्दों, काव्यालङ्कारों के प्रयोग करने में इन्हें सहज सिद्धि प्राप्त थी। ये दोनों प्रकार की अर्थात् गद्य तथा पद्य रचना सहज रूप से कर सकते थे । इनकी रचनाओं की प्रभावकता का सामान्य रव्याल तो इसी बात से आ जाता है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी में विरचित एक वादस्थल में प्रस्तुत ग्रन्थकार द्वारा विरचित मूलशुद्धिप्रकरणविवरणगत नम्मयासंदरिकहा का उल्लेख प्राप्त होता है।