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अन्तिम निवेदन
सावधानी रखने पर भी प्रस्तुत ग्रन्थ की समग्र वाचना तैयार करने एवं प्रूफ देखने आदि कार्य में छद्यस्थता, अज्ञानता, प्रमादादि दोषों के कारण यदि ग्रन्थकार पूज्य आचार्य श्री जी के आशयविरुद्ध तथा शब्द, अर्थ या तदुभय की संगतिविरुद्ध कोई कार्य हुआ हो तो मैं तत्सम्बन्धी मन, वचन काया से 'मिच्छा मि दुक्कड़म्' चाहता हूं, और पाठक जनों से विनम्र निवेदन करता हूं कि वे मुद्रित ग्रन्थगत गल्तियां मुझे अवश्य सूचित करें।
अन्त में माता अचिरादेवीजी के गर्भ में अवतरित होते ही नगरी में प्रसृत अशिवको शान्त करने के कारण शान्ति नाम पाने वाले, शान्ति के कर्ता, वर्तमान चौबीसी में सोलहवें तीर्थंकर परमात्मा श्री शान्तिनाथस्वामीजी से जगत् में फैले सभी प्रकार के अशिवों की शांति के लिए प्रार्थना करता हुआ और ग्रन्थकार आचार्य श्री जी के द्वारा जयवाद स्वरूप रची गईं इन गाथाओं को गाता हुआ
विरमामि।
परिहरियसुदारो वज्जियासेसखारो धरियवयसुभारो दुक्खलक्खोहदारो। तवसिरिवरहारो दोसचोरिक्कचारो चरणधणअपारो अंतरंगारिमारो ।। कयपवरविहारो चत्तसव्वाणयारो पणमिरसुरवारो मोहवल्लीकुठारो। दुहदवजलधारो केवलण्णाणफारो कयबहुअणगारो भव्वलोओवयारो।।