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जाने या नष्ट हो जाने के कारण दो पत्रों की प्रतिलिपि अन्य लिपिक के द्वारा की गई है।
का० संज्ञक प्रति कागद पर लिखी गई है। लिपिक की असावधानी से या प्रतिलिपि के लिए प्रयुक्त आदर्श प्रति के पाठों के कारण कितने स्थानों पर पाठ छुट गए हैं तो कितने स्थानों पर एक ही पाठ दो दो बार लिखा गया है। इस प्रति के पाठों में स्वरों के स्थान पर ककार, यकार, तकार आदि व्यञ्जनों के प्रयोग अधिक पाए जाते हैं। इस प्रति के पाठ अधिक अशुद्ध हैं, मगर कुछ स्थानों पर तो इस प्रति से ऐसे शुद्ध पाठ प्राप्त हुए हैं जो कि ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठों की अपेक्षा भी मुझे तथा मेरे अनुभवी सहायक विद्यागुरुजी को अधिक उपादेय प्रतीत हुए। उन पाठों को मैनें मूल में स्विकारा भी है। इस प्रति के पाठों को पढ़ने से यह बात नि:सन्देह रूप से कही जा सकती है कि सिरिसंतिनाहचरियं के पाठों की एक परम्परा ऐसी भी प्रचलित थी जिसमें शब्द व्यञ्जनबहुल थे।
प्रयुक्त प्रतियों का क्रमाङ्क तथा सामान्य परिचय तत् तत् ज्ञानमन्दिरों के मुद्रित सूचिपत्र के अनुसार निम्न है।
त्रु०- गायकवाड़ी नं०- ३६८ । पेटी नं०- १८ । पत्र- ३२१ । ग्रन्थकर्ता-आचार्य श्री देवचन्द्रसूरीश्वरजी । श्लोक संख्या - १२१०० । लेखन संवत् - १२२४ । प्रति की लम्बाई चौड़ाई- ३३"x २" इंच । स्थिति- अन्तिम ३ पत्र उधई के द्वारा खाए गए हैं। प्रति त्रुटक और अतिजीर्ण है । (यह प्रति मूलत: संघवी पाड़ा ज्ञानभंडार की है। इस प्रति की प्रशस्ति के ३७ श्लोक श्रीमान् चिमनलाल डाह्याभाई दलाल द्वारा अथक प्रयास से निर्मित पत्तनस्थप्राच्यजैनभाण्डागारीयग्रन्थसूचि भाग प्रथम में लिखे गए हैं,