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लोककथाओं, धर्मकथाओं और चरित्रकथाओं का बहुत महत्त्व है फलत: वे प्रचुर प्रमाण में पायी जाती है।
कथा के इतिहास के मूल को खोज पाना यह किसीके लिए भी मात्र कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव भी है। मगर यदि कोई व्यक्ति किसी परम्पराविशेष की कथा के मूल को खोजना चाहता है तो वह उस परम्परा के मूलभूत साहित्य और इतिहास में से खोज सकता है । जैन कथाएं एवं जैन कथाओं के मूल जिनशासन के मूलभूत आगमों एवं श्रुत - कर्णोपकर्णपरम्परा में पाए जाते हैं । उन्हें प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी या अन्य किसी भी लोकभाषा में व्यवस्थित और लोकभोग्य बनाने का कार्य समय समय पर श्रुतभक्त आचार्यों, उपाध्यायों, मुनिभगवन्तों एवं नामी अनामी कई विद्वज्जनों ने भूतकाल में किया है एवं वर्तमान काल में कर भी रहे हैं। परिणामस्वरूप जैन कथासाहित्य इतना विकसित हुआ है और अभी भी नए नए रूपों से विकसित होता जा रहा है।
कथाओं में अधिकतर कथाएं चरित्रकथाएं होती हैं। इन कथाओं के माध्यम से रचनाकार विद्वज्जन चरित्र के मूलपात्रों और मूलपात्रों से सम्बन्धित अन्य पात्रों की दूरदर्शिता, अदूरदर्शिता, कृतित्व, व्यक्तित्व, शालीनता, प्रभावकता, परोपकार आदि विषयों एवं उनके जीवनव्यवहार का आलेखन करते हुए उनके प्रति स्वयं के अन्तर्भाव, भक्ति, बहुमान आदि को तो प्रकट करते ही हैं मगर उनके साथ साथ आनुषनिक रूप से लोकहितकर दृष्टिकोण, सत्शिक्षाएं, अपने तथा दूसरों के अनुभव, मानवीय एवं सांस्कृतिक प्रणालिकाएं, प्राणालिकाओं में बदलाव आदि अनेक विषयों को भी प्रकट करते हैं; अर्थात् अनेक विशेषताओं से समृद्ध होते हैं चरित्रकथाग्रन्थ ।