Book Title: Siddhantasaradisangrah
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: M D Granthamala Samiti

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Page 4
________________ ग्रंथके का भ० शुभचंद्र ज्ञानभूषण के प्रशिष्य थे, अतएव इन दोनोंका परिचय पाठकों को एक साथ कराया जाता है। सिद्धान्तसारके माध्यमें यश्चपि भाष्यकारने अपना कोई स्पष्ट परिचय नहीं दिया है और न उसमें कोई प्रशस्ति ही है; परंतु मंगलाचरणके नीचे लिखे लोकसे मालूम होता है कि वह भ० ज्ञानभूषणमा ही बनाया हुआ है: श्रीसर्वज्ञ प्रणम्यादी लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम् । भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये शानभूषणम् ॥ __इसमें सर्वज्ञको जो शानभूषण विशेषण दिया है, वह निश्चय ही भाष्यकाका नाम हैं। और भी कई प्रन्थकाओंने मंगलाचरणों में इसी तरह अपने नाम प्रकट किये हैं* | __ उक्त मंगलाचरण 'लक्ष्मीपीपुलैबितम्' ५६से यह भी मालूम होता है कि लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र नामके उनके (ज्ञानभूपणके ) कोई शिष्य या प्रशिध्यादि होंगे जिनके पढ़नेके लिए उस भाध्य बनाया गया होगा। ज्ञानभूषणके प्रविष्य शुभचन्द्राचार्यकी बनाई हुई स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा-टीकाकी प्रशस्तिके १०-११वें श्लोकमें जो कि धागे उद्धृत की गई है-इन लक्ष्मीचन्द्र और कीरचदका उल्लेख है और उस उल्लेखसे हम कह सकते हैं कि भाष्यके मंगलाचरणका 'लक्ष्मीवीरेन्दुसे वितम्' पद उन्हीको लक्ष्य करके लिस्ना गया है । भट्टारक ज्ञानभूषण मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आचार्य थे । उनकी गुरुपरम्पराका प्रारंभ भ. पद्मनन्दिसे होता है। पमनन्दिसे पहलेकी परंपराका अभी तक ठीक ठीक पता नहीं लगा है। १ पद्मनन्दि--२ सकलकीर्ति-३ भुवनकीर्ति और ४ शानभूषण। यह शानभूषणको गुरुपरंपराका कम है। ज्ञानभूषणके बाद ५ विजयकीर्ति और फिर उनके शिष्य ६ शुभचन्द्र हुए हैं और इस तरह शुभचन्द्र ज्ञानभूषण के प्रशिष्य है। यहाँ यह कहनेकी भाष. श्यकता नहीं कि प्रत्येक भट्टारकके अनेकानेक शिष्य होते थे; परंतु उपयुक्त ___ * यथा सोमदेवकृत नीतिवाक्यामृत में-" सोमदेवं मुनि नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे । ” और अनन्तवीर्यको लघीयस्त्रयवृत्तिमें-" अनन्ववीर्यमानौमि स्याद्वादन्यायनायकम् " इत्यादि ।

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