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३. ठाणांग' ठाणे पांच में, तथा सूत्र ववहार' ।
भगवती अष्टम शथक में, अष्टमुद्देशे सार ।। ४. तिण सं जीत ववहार में, दोष नहिं छै कोय ।
नीतिवान गणपति तणों, बांध्यो जीत सुध जोय ।। ५. सुध आलोची मुनि करे, असम्यक् पिण सम्यक् कहिवाय ।
आचारांग अध्ययनपंचमें, पंचमक उद्देशे वाय ।। ११. तथाजोड़किवाड्यातणी, चोपने कीधी स्वाम।
तिण मांहै पिण थापियो, जीत ववहार सुधाम ।। આચાર્ય ભિક્ષુ કૃત કવાડિયાની ઢાલ, ગા. ૨૧થી ૨૪ तथा - सूतर मांही तो मूल न वरज्यो, परंपरा में पिण बरज्यो नांहि । तिण सूं जीत ववहार निर्दोष थाप्यां री, संका म करो मन मांह ।। जो कवाडिया री संका पडै तो, संका छै ठांम-ठांम। ते कहि कहि ने कितराएक केहूं, संका रा ठिकाणा तांम ॥ साधु तो हिंसा रा ठिकाणा टाले, छद्मस्थ तणे ववहार। सुध ववहार चालतां जीव मर जाये तो, विराधक नहीं छै लिगार ॥ इहां भीखणजी स्वामी आपणा ववहार में जीत ववहार थापै तिण में दोष 'न कह्यो । सुध ववहारे चालतां जीव मर जावै तो पिण विराधक नहीं, तिम सुधं ववहार जाण ने थाप्यो तिण में पिण दोष नहीं। अनै ते जीत ववहार में पाछला ने दोष भ्यासै तो छोड़ देणो। आगे निर्दोष जाण ने सेव्यो त्यांने दोष न कहिणो। तथा सुयगडायंग श्रुतस्कंध दूजो अध्ययन पांचमा में एहवी गाथा कही - अहाकम्माणि भुंजंति, 'अण्णमण्णस्स कम्मणा' । उवलित्ते त्ति जाणिज्जा, अणुवलित्ते त्ति वा पुणो । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं विजाणए ॥
(सूयगी २, ५. ५, गाथा ८, ९) अथ इहां पिण कह्यो आधाकर्मी पिण सुध ववहार में निर्दोष जाणी
ने भोगवें तो पाप कर्मे कर न लिपावै । तिम आचार्य बुद्धिवंत साधु १. ठाणं ५/१२४, २. ववहार १०/६, ३.. भगवई सतं ८/३०१, ४. आयारो ५/९६
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