Book Title: Shrutsagar Ank 2014 03 037
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर - ३७ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ ४. मनपर्यवज्ञान अने ५. केवळ ज्ञान पारमार्थिक छे. ज्ञाननी व्याख्या : ज्ञान एटले जाणवुं जाणवुं ए जीवनो गुण छे. जीवअजीव भेदनुं मुख्य कारण ज्ञान छे. १. जेनाथी वस्तुना स्वरूपनो निर्णय थइ शके ते ज्ञान. (नंदीसूत्र ) २. ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमथी प्रगट थतो आत्मानो गुण ३. स्व अने परनुं जाणपणुं ते ज्ञान. (प्रमाणनय पृ. ५) ४. सत् अने असत् नुं पृथ्थकरण करी शके ते ज्ञान. ५. ज्ञेय पदार्थोनी विशेष जाणकारी आपनारी चैतन्यशक्ति ते ज्ञान. पांच ज्ञाननुं स्वरूप : १. मतिज्ञान : पांच इन्द्रियो अने मनशी थनारुं ते ते विषयने जणावनाएं ज्ञान ते मतिज्ञान छे. चक्षुथी रूपविषयक, घ्राणथी गंध विषयक जिह्वाथी रसविषयक, त्वचाथी स्पर्शविषयक, श्रोत्रथी शब्दविषयक अने मनथी संकल्प - विकल्पविषयक जे ज्ञान थाय छे ते मति - ज्ञान छे. तीव्रता, मंदतानुसार मतिज्ञानमां पण तारतम्यता होय छे. कोई शीघ्र सगजे, कोई गोडेथी सगजे, कोई वारंवार जाणवाथी सगजे, कोई प्रसंगे आपमेळे समजे. मतिज्ञानने आभिनिबोधिक ज्ञान पण कहेवाय छे. अभि = समीप रहेल पदार्थोंनो, नि निश्चयात्मक बोध थाय ते अभिनिबोध, ते उपरथी स्वार्थमां 'इकण' प्रत्यय लागवाथी आभिनिबोधिक शब्द बने छे. पदार्थनी हाजरीमा थतो संशयरहित बोध ते आभिनिबोधिक ज्ञान आ ज्ञान मतिज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमथी उत्पन्न थाय छे. = २. श्रुतज्ञान : आ ज्ञान पण इन्द्रियो अने मनथी ज थाय छे. तथापि जे ज्ञान प्राप्त करवामां भणावनार अने समजावनार गुरुनी अने शास्त्रादिनी जरूरियात रहे अर्थात् गुरु के आगमादि शास्त्रोना आलंबने जे ज्ञान प्राप्त थाय छे ते श्रुतज्ञान कहेवाय छे. जेम कोई पण पुस्तक विगेरेनुं एक पानुं चक्षुथी वांची जवुं ते मतिज्ञान छे परंतु तेमां रहेला हार्दने - परमार्थने जाणवुं समजवं ते श्रुतज्ञान छे. शब्दोमां रहेलो परमार्थ पामवो ते श्रुतज्ञान छे. For Private and Personal Use Only आ परमार्थ समजावनार कोई गुरु होय तो ते परमार्थने पामवो सुगम बनी जाय छे. श्रुतज्ञान शब्द अथवा संकेतथी थाय छे. ते ज्ञानमां मुख्यता होवाथी ते मननो विषय मनाय छे बोलवु ए वचन छे परंतु बोलवानो जे अर्थ होय ते श्रुतज्ञान

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