Book Title: Shrutsagar Ank 2014 01 036
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद् देवचन्द्रजी और उनकी सचित्र स्नात्रपूजा पू. मुनिश्री कांतिसागरजी आर्य संस्कृति में अध्यात्मविद्या का स्थान महत्त्वपूर्ण माना गया है, और वाकई में वह है भी ठीक । यहाँ के मुनियों ने अध्यात्मवाद का इतना विकास किया 1 था जितना समस्त विश्व के किसी भी देश के महात्मा ने किसी भी काल में नहीं किया । यह न सिर्फ मेरा हि कथन है वरन् अंग्रेज ' आध्यात्मिकों का भी ऐसा ही अभिप्राय है । अध्यात्मवाद भारत की उन विशेषताओं में से है जिसने विश्व में भारत के गौरव की पताका फहराई है। एक समय भारत अध्यात्मिकों का विशाल केन्द्र था । यद्यपि फिलहाल इस विद्या का प्रचार अपेक्षाकृत कम पाया जाता है फिर भी इतरदेशापेक्षा कम नहीं है । जैन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त में अध्यात्मवाद भी एक है। जैन मुनियों ने इसे इतना अपनाया है कि मानो उन्होंने उसे आत्मिक वस्तु बना ली, एवं उन्होंने इस वाद में उत्तरोत्तर वृद्धिकर, जैन समाज को ही नहीं अपितु समस्त भारत को एक तरह से ऋणी किया है। "अध्यात्मवाद" पर मैंने एक विस्तृत निबन्ध लिखा है अतः यहां पर अधिक लिखना अनावश्यक है। श्रीमद देवचन्द्रजी जैन समाज के उन आध्यात्मिकों में से हैं जिन्होंने एतद्विषयक साहित्य में वृद्धि कर आत्मकल्याण किया है। ऐसे आध्यात्मिक मुनिराज का नाम जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगा । यद्यपि प्रस्तुत लेख में 'सचित्र स्नात्रपूजा' का परिचय देना पर्याप्त था पर विषय को समझने के लिए कर्ता का संक्षिप्त परिचय देना भी अनिवार्य है । श्रीमद् देवचन्द्रजी का जन्म बीकानेर निकटवर्ती रमणीय ग्राम में वि. सं. १७४६ में हुआ था। आपने दस वर्ष की बाल्यावस्था में खरतरगच्छीय उपाध्यांय रामसागरजी के पास दीक्षा अंगीकार की । आपने बेनातट ( बिलाडा ) में भूमिगृह में बैठकर सरस्वतीमंत्र सिद्ध किया था। जिससे आप अल्प समय में गीतार्थ होकर संस्कृत प्राकृत, व्याकरण, छंद, अलंकारादि शास्त्रों में निपुण हो गये। आपकी विहारभूमि बहुत विस्तृत थी । सं. १७७७ फाल्गुन शुक्ल तृतीया को मरोट नगर में आगमसार नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की, जिसका आज भी सर्वत्र अध्ययन किया जाता है। आपने सं. १७७७ में परिग्रह का सर्वथा त्याग कर क्रियोद्धार किया और अहमदाबाद पधारे। वहाँ पर आपकी देशना सुनकर लोग मुग्ध हो गये। उसी समय आपके इस निष्पक्ष उपदेश से मानिकलाल ढूंढिये ने १. देखिये 'गुप्तभारत की खोज' For Private and Personal Use Only

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