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श्रुतसागर • ३६ की स्वाभाविक गति अवस्था को कुंभक प्राणायाम कहा जाता है।
प्रत्याहार : 'स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुक़ारइवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । इस अवस्था में शरीर का पूर्ण शुद्ध होना अत्यावश्यक है। साधनाकाल में त्याग, संतोष एवं समर्पण की भावना चित्त को ज्योतिर्मय स्वरूप प्रदान करने में सहायक होती है।
धारणा : 'देशबन्धश्चित्तस्य धारणा' ।१६ नाभिचक्र एवं हृदयकमल में अपने आप को मस्तिष्क के साथ केन्द्रित करने पर चित्त विषयों से अलग हो जाता है, और यही अवस्था है ध्यान । त्राटक क्रिया इसका एक अंग है। साधक दीपक अथवा मोमबत्ती की लौ पर धारणा करके वशीकरण-शक्ति प्राप्त करते हैं।
ध्यान : 'तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम'। मन को जिस वस्तु में एकाग्न किया हो उसमें मन का लीन हो जाना ही ध्यान है। ध्यान द्वारा साधक गहनतम ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। ध्यान द्वारा साधक प्रभुमय हो जाता और उसका हृदय भक्तिभाव से द्रवित हो जाता है। शरीर आनन्दातिरेक द्वारा रोमाञ्चित हो जाता है। इस अवस्था में सात्त्विक चित्त का होना आवश्यक है।
समाधि : 'तदेवार्थमात्रभिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः' । ध्यान अवस्था में चित्त पवित्र ध्येय में परिणत हो जाता है। साधक को स्वरूपाभाव का ज्ञान हो जाता है और वह देह से अभिन्न होता है। लेकिन जब रावण जैसी शक्ति अपने चित्त में विनाशरूपी विचारों को समा लेती है तो उसके दुष्परिणाम समाज के सामने आने लगते हैं। समाधि मानवकल्याण की भावना के साथ होने पर जीवन को ज्योतिर्मय ज्ञानचक्र का प्रसाद प्रदान करती है, जिसमें अनेक शक्तियाँ प्रवेश कर जाती हैं।
आज के तनावपूर्ण और व्यस्ततम माहौल में हम योगदर्शन के सिद्धान्तों को अपनाकर जीवन को एक नया मोड़ दे सकते हैं, अपने भविष्य को स्वर्णिम प्रकाश की ओर अग्रसर करके मानव से महामानव बन सकते हैं।
बौद्धायन धर्मसूत्र में योग की महिमा का वर्णन कुछ इस प्रकार से किया है : योगेनाऽवाप्यते ज्ञान, योगो धर्मस्य लक्षणम्। योगमूला गुणास्सर्वे, तस्माद्युक्तस्सदा भवेत् ।।
अर्थात् योग से ज्ञान प्राप्त होता है, योग ही धर्म का लक्षण है, सभी गुण योग के कारण हैं। अतः हमेशा योगयुक्त बनें।
१५. विषयों से विरक्त होने पर इन्द्रियों का स्व-रूप तदाकार हो जाना प्रतिहार है। १६. योगसूत्र-३/१ १७. योगसूत्र-२/५४ १८. योगसूत्र-३/३
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