Book Title: Shrutsagar 2018 06 Volume 05 Issue 01
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 June-2018 SHRUTSAGAR आपका जन्म वि.सं. १५६५ के मार्गशीर्ष सुदि चतुर्थी को हुआ था। जूठिल कुलशृंगार मंत्री भोदेव के पुत्र देदा के पुत्र नगराज-नागलदे माता के आप पुत्र थे। जन्मपत्नी के अनुसार आपको दीर्घायु, भाग्यवान व राजप्रतिबोधक जानकर, अपने पूर्वज कुलधर की इच्छानुसार एवं त्रिपुरादेवी के संकेतानुसार सं. १५७५ में बड़े समारोहपूर्वक दीक्षा देकर मुनि भोजकुमार नाम रखा गया। ___ सं. १५८२ फाल्गुन सुदि ४ गुरुवार के दिन जोधपुर में पट्टाभिषेक करने का निर्णय आचार्य जयसिंहसूरि, उपाध्याय भावशेखर, उपा. क्षमासुन्दर, उपा. ज्ञानसुन्दर आदि की उपस्थिति में किया गया। पट्टाभिषेक के अवसर पर श्री गंगेव राव सहित अनेक नगरों के संघों को साग्रह आमंत्रण दिया गया। नंदी महोत्सवपूर्वक बड़गच्छनायक श्री पुण्यप्रभसूरि द्वारा सूरिमंत्र दिलाकर आचार्य श्री जिनगुणप्रभसूरि नाम की स्थापना की गई। सं. १५८७ आषाढ़ वदि १३ गुरुवार को विजय वेला में जैसलमेर पधारे। रावल देदास के पट्टधारी श्री जेतसीह ने आचार्यश्री को मोतियों से बधाया एवं चातुर्मासपर्यन्त अमारि प्रवर्तित की। रावलजी आपको अपना गुरु मानते थे। आपने रावल मालदेव कृत विशाल समारोह में वि.सं. १६१२ के भाद्रपद सुदि नवमी गुरुवार के दिन आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरिजी के शिष्य सत्रह वर्षीय मुनि सुमतिधीरजी महाराज को आचार्य पदारोहण विधान के साथ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि नाम से प्रसिद्ध किया। शासन की महती प्रभावना कर, ७२ वर्ष पर्यन्त संघ का नेतृत्व कर सं० १६५५ वैशाख वदि ८ को तिविहार और ग्यारस को संघ साक्षी से डाभ के संथारे पर १५ दिन संलेखना पूर्णकर, ९० वर्ष ५ मास ५ दिन का आयुष्य पूर्णकर वैशाख सुदि ९ सोमवार को जैसलमेर में स्वर्ग सिधारे । आपके स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा सं० १६६३ में हुई जिस पर २१ पंक्तियों का अभिलेख उत्कीर्णित है। आपके द्वारा रचित चित्रसंभूत संधी, नवकारगीत आदि शताधिक रचनाएँ प्राप्त होती हैं। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से इनके ६ शिष्यों- गुणसागर, कमलसुन्दर, मतिसागर, पं. भक्तिमंदिर, ज्ञानमंदिर, जिनेश्वरसूरि आदि का उल्लेख मिलता है। प्रति परिचय ___ बीकानेर चातुर्मास वि.सं.२०७४ के दौरान अभय जैन ग्रंथालय में संरक्षित प्राचीन प्रतियों के अवलोकन का अवसर मिला। जिनमें प्रस्तुत कृति की आदर्श प्रति गुटका संख्या १०१७ की पृष्ठ संख्या २४८अ से २५२अ पर लिखी हुई है। इस प्रति में प्रत्येक पृष्ठ पर तेरह पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में १६ अक्षर लिखे गये For Private and Personal Use Only

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