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श्रुतसागर
जून-२०१८ हैं। मध्य में रक्तवर्णीय वापिका स्वरूप स्थान सुशोभित है। गुटका की पुष्पिका इस प्रकार है- 'संवत् १६५४ वर्षे कार्तिक वदि १३ दिने शुक्रवारे श्री मुलत्राण नगरे। पं० रतनसीहेनालेखि पुस्तिकेयं ॥ उकेसवंसे बुथडा गोत्रे । सा० धनराज तत्पुत्ररत्न चि० तिलोकसी पठनार्थं ॥ शुभं भवतु ॥' ___अनुवाद- वि.सं. १६५४ में कार्तिक वदि १३ के दिन यह पुस्तिका मुलतान (हाल पाकिस्तान) नगर में रतनसिंह ने ओसवाल वंश में बोथरा गोत्रीय श्री धनराज व उनके पुत्र श्री तिलोकसी के लिये लिखी है।' ____ अभय जैन ग्रंथालय की प्रति को आदर्शप्रति मानकर प्रस्तुत संपादन किया गया है। पाठांतर व पाठशुद्धि हेतु आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा की हस्तप्रति संख्या ६२४२१ का उपयोग किया गया है। प्रति सहर्ष उपलब्ध करवाने के लिए कोबा ज्ञानमंदिर के संचालकों व अभय जैन ग्रंथालय के प्रमुख श्री विजयचंदजी नाहटा और श्री रिषभजी नाहटा का सादर आभार।
सतरह भेदी पूजा स्तवन आदिजिण पमुह चउवीस तित्थंकरा, वंदीयइ प्रहसमइ भत्तिभर निब्भरा। भणिसुं हुं सतर वर भेद पूजा तणी(तणा), जासु अधिकार छइ आगमे अतिघणा ॥१॥ इंद्र चउसट्ठि नइ अवर वर देवता, पूज अरिहंतनी करइ नितु सेवता। न्हवण विलेवण वत्थजुग वासनी, पुप्फ नइ माल वलि वर्ण वर चूर्णनी ॥२॥ इंद्रधज आभरण फूलघरे वासी ए, अष्ट' मंगल लिखी धूप गुण भास ए। नाटक वाजिन पूज सतरइ सही, गुरुय गणधार श्रीसूत्र माहे सही ॥३॥
॥वस्तु ॥ आदि भवियण आदि भवियण भगति धरि चित्ति। निर्मल तनु धोवति धरीय, करीय वयण मुखकोस सुंदर। कलस भरी कंचण तणउ, सुरिहि नीर श्रीजैन मंदिरू। आवी निसही नमिणी२ करी, जिनपडिमा अविलोय३ । जतन सुं जयणा करी अंग पखालीइ सोयी'५
॥ढाल॥ अंग पाखाली(पखाली) मनह रंगि अंगलूहणउ६ कीजइ। पहिली पूजा एम करी नरभव फल लीजै।
॥४॥
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