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SHRUTSAGAR
March-2016
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के ग्रंथागार में संग्रहीत हैं।
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि हीरानंदसूरि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के पींपलगच्छ सम्प्रदाय में लगभग वि.सं.१५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे और यही समय इस कृति का रचनाकाल कहा जा सकता है।
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प्रत परिचय : आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा के ग्रन्थागार में विद्यमान यह प्रत ३७७४५ नंबर पर दर्ज है जो हस्तनिर्मित कागज के रूप में है। इसमें कुल तीन पत्र हैं, जिनमें दोनों ओर काली स्याही से कलम द्वारा प्राचीन देवनागरी लिपि में कृति लिपिबद्ध है।
इस प्रत के पत्रों की किनारियाँ मूषक भक्षित एवं कालप्रभाव के कारण खण्डित हैं, लेकिन मूल पाठ पूर्णतः सुरक्षित है। कागज में कहीं-कहीं जीवातकृत छिद्र भी दिखाई पडते हैं । प्रत्येक पत्र में ९ पंक्तियाँ है तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४० से ४५ अक्षर हैं । प्रत के मध्य भाग में मध्यफुल्लिका प्राप्त होती है। अक्षर सुन्दर और सुवाच्य हैं तथा 'ए' व 'ओ' की मात्रओं के लिए अग्रमात्रा (पडीमात्रा) का प्रयोग हुआ है ।
कृति के अन्त में प्रतिलेखन पुष्पिका नहीं मिलती है तथा कहीं भी प्रतिलेखक ने लेखन संवत् अथवा अपना नाम, स्थल, प्रेरक, पठनार्थे आदि विषयक कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। लिपिविन्यास, लेखनकला तथा कागज आदि के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि इस प्रति का लेखन लगभग वि.सं.१७वीं शताब्दी के आस-पास हुआ होगा । प्रत की लंबाई-चौडाई २६” x ११” इंच है।
इस प्रत के अलावा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा के ग्रंथागार में इसी कृति की दो अन्य प्रतें भी संग्रहित हैं जो प्रत संख्या ३५५५५ एवं ३७४३३ पर दर्ज हैं।
हमने इस कृति के संपादन में इन दोनों प्रतों का भी यथायोग्य सहयोग लिया है, जो लगभग वि.सं. १८वीं शताब्दी की हैं।
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