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दशार्णभद्र रास
डॉ. उत्तमसिंह कृति परिचय : प्रस्तुत कृति ‘दशार्णभद्र रास' के कर्ता हीरानंदसूरि जी म.सा. हैं जो लगभग वि.सं.१५वीं सदी में विद्यमान थे। संभवतः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित इस रचना का प्रकाशन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा के ग्रन्थागार में विद्यमान हस्तप्रत के आधार पर किया जा रहा है। मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध यह कृति इकत्तीस गाथाओं में पूर्ण हुई है। इसकी लिपि प्राचीन देवनागरी है, जिसमें अग्रमात्राओं का प्रयोग हुआ है।
कर्ता ने प्रथम गाथा में वीर जिणेसर पय नमी' कह कर प्रभु महावीरस्वामी को वंदन किया है तथा समरीय सरसति देवि' कह कर विद्या की देवि सरस्वती का स्मरण करते हुए ‘दशनभद्र गुण गाइसिउं' कह कर कृति का नामोल्लेख किया है।
जंबुद्वीप भरतक्षेत्र में विद्यमान 'दशनपुर' नामक अति सुन्दर नगर के राजा दशनभद्र अथवा दशार्णभद्र का जीवनचरित्र इस कृति में वर्णित है। अतः इस कृति का नाम ‘दशार्णभद्रराजा रास' के रूप में प्रस्थापित होता है। दशार्णभद्र एक वैभवशाली राजा थे जिनके मन में अपनी विपुल संपत्ति एवं ऐश्वर्य के कारण अभिमान उत्पन्न हुआ। वे एक बार बडी समृद्धि के साथ प्रभु महावीर को वन्दन करने हेतु जाते हैं। वहाँ इन्द्र भी प्रभु महावीर के वंदनार्थ उपस्थित हुए। इंद्र के वैभव एवं सुख-संपत्ति के समक्ष दशार्णभद्र को अपना वैभव तिनके के समान प्रतीत हुआ। उसके मन का भ्रम टूट गया और हृदय में वैराग्य उत्पन्न होने के कारण दीक्षा लेने का निर्णय कर लिया। इस प्रकार प्रभु महावीर के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण कर कैवल्य प्राप्ति आदि विषयक अति रोचक और मनोहर वर्णन इस कृति में वर्णित है। भगवान महावीर के समवसरण का कर्ता ने निम्नोक्त पंक्तियों द्वारा अति सुन्दर वर्णन किया हैरयण कयण गढ रूपमई, कोसीसां कोसीसांनी ओलि कि। मणिमय तोरण मंडिआ ए, चिहुं पखि चिहुं दिसि पोलि कि ॥३॥
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