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श्रुतसागर
मार्च-२०१६ रूपमइ च्यारिइ कलश पोलिहिं धजादंड कलस लहलहइं, मृगनाभि अगर कपूर केसर कुसुम चंदन महमहई। दों दो कि दो दो दुंदुभि सद्दहिं देव दुंदुहि द्रहद्रहइं, चउसट्टि सुरवर नाग नरवर असुर किंनर गहगहई ॥४॥
इसी प्रकार प्रभु महावीर के समवसरण का अति मनोहर वर्णन करते हुए कवि ने विविध उपमाओं का उल्लेख किया है तथा अन्त में दशार्णभद्र द्वारा दीक्षा ग्रहण कर तप करने तथा केवलज्ञान प्राप्ति आदि का वर्णन किया गया है। कवि ने दशार्णभद्र के तप का वर्णन करते हुए ‘दशनभद्र ऋषि' तथा 'दशनभद्र मुनीश्वर' आदि शब्दों का प्रयोग कर इस रचना के लालित्य में चारचाँद लगा दिये हैं।
__ कर्ता परिचय : जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि इस कृति के रचनाकार आचार्य हीरानंदसूरि हैं जिन्हें हीराणंदसूरि के नाम से भी जाना जाता है। कर्ता ने भी इस कृति की अन्तिम गाथा में स्वकीय नामोल्लेख हीराणंदसूरि के रूप में किया है।
इसके अलावा रचनाकार ने अपनी गच्छ परम्परा अथवा गुरु-शिष्य परम्परा या रचना-संवत् आदि का कोई उल्लेख नहीं किया है। अतः इस रचना के आधार पर कर्ता का सही समय अथवा इस कृति का सही रचना-संवत् निर्धारित कर पाना मुश्किल है। लेकिन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा में संकलित सूचनाओं के आधार पर हीरानंदसूरि का समय वि.सं.१४८५ ज्ञात होता है।
इनका अन्य प्रचलित नाम हीराणंदसूरि मिलता है जो पीपलगच्छीय आचार्य वीरप्रभसूरि के शिष्य थे। वीरप्रभसूरिजी वि.सं.१४७८ में विद्यमान थे और इनके गुरु आचार्य श्री वीरदेवसूरिजी थे।
हीराणंदसूरि रचित विद्याविलास पवाडउ नामक प्रकाशित कृति में भी रचनाकाल वि.सं.१४८५ का उल्लेख मिलता है जिसका प्रकाशन गुर्जररासावली नामक प्रकाशन में गायकवाड ओरिएण्टल सीरीज के तहत वडोदरा गुजरात से हुआ है। यह प्रकाशित पुस्तक तथा इस मूल कृति की लगभग ६ हस्तप्रतें
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