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भक्तामरस्तोत्र के अलंकारों का आंशिक अध्ययन
अभिषेक जैन
भक्तामरस्तोत्र जैनधर्म में रचे गए संस्कृत स्तुति ग्रंथों में सर्वाधिक प्रचलित एवं सर्वस्वीकृत भक्तिकाव्य है । इस काव्यग्रंथ की महत्ता इससे भी सिद्ध होती है कि यह एक ऐसा स्तुतिकाव्य है जो कि जैनों की दोनों शाखाओं दिगम्बर एवं श्वेतांबर में समान रूप से स्वीकार्य है। जैनसमाज का थोड़ा सा भी धार्मिक श्रावक इस स्तोत्र का नियमित पाठ भी करता है ।
इस शोधलेख के माध्यम से हम इस भक्तिकाव्य में यत्रतत्र विकीर्ण अलंकारों का रसास्वादन कराने का प्रयास करेंगे जिससे इस भक्तिकाव्य की काव्यशास्त्रीय गरिमा का परिचय प्राप्त होगा । इस काव्य के कर्ता असंदिग्ध रूप से महामुनि मानतुंग हैं क्योंकि कवि स्वयं काव्य की अंतिम पंक्ति में ‘तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी' कहकर अपना नामोल्लेख करते हैं । “परंतु जैनाचार्यपरम्परा में १३ शताब्दी तक छोटे-बड़े १० आचार्यों के नाम मानतुंग मिलते हैं। इनमें से कथाकोषादि ग्रंथों के आधार से राजाभोज के समकालिन स्वीकारे जाते हैं।”
भक्तामर की छंद संख्या के बारे में दोनों परंपरा में थोडी भिन्नता दिखाई देती है। श्वेताम्बर परंपरा में ४४ एवं दिगंबर परंपरा में ४८ माने गएँ हैं। स्थानकवासी यद्यपि श्वेतांबर परंपरा के ही है फिर भी उन्होंने ४८ अपनाए है। समस्त छंद वसंततिलका छंद में निवद्ध हैं जिसका लक्षण है-उक्ता वसंततिलका तभजाजगौगाः बसंततिलका एक वार्णिक छंद है जिसमें १४ वर्ण होते हैं तथा इन वर्गों में तगण भगण जगण जगण एवं अंत में दो गुरु वर्ण होते हैं। अलंकारशास्त्रीय वर्णन से पूर्व अलंकार के सामान्य स्वरूप का विचार करते हैं।
अलंकार- आचार्य मम्मट काव्यप्रकाश में कहते है -
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलङ्कारस्ते अनुप्रासोपमादयः ।।
अर्थ- जो काव्य में विद्यमान रस को शब्दार्थ रूपी अंगों के द्वारा कभीकभी उत्कर्षयुक्त करते हैं वे अनुप्रास और उपमादि हारादि अलंकारों के समान
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