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मार्च-२०१६
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श्रुतसागर
गजमुक्ताओं से भूमि का भाग सुंदर हो गया हो ऐसा सिंह जो छलांगे मारने के लिए तैयार हो उसके पंजे में आया हुआ भक्त अगर आपके चरणरूपी पर्वत की शरण लेता है तो सिंह उस पर आक्रमण नहीं करता । इस छंद 'बद्धक्रमः' हाथी के वर्णनादि प्रसंगों में चित्रालंकार की निष्पत्ति है।
अर्थालंकार के अतिरिक्त शब्दालंकारों का भी भक्तामर स्तोत्र में बहुलता के साथ प्रयोग मिलता है अतः कुछ शब्दालंकारों के प्रयोग देखते है
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नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥
इस पद में ‘भ’ अक्षर की पुनः पुनः आवृति होने के कारण यहाँ वृत्यानुप्रास प्राप्त होता है।
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लाटानुप्रास – जहाँ शब्द अथवा पदों की पुनरावृत्ति के माध्यम से रसोत्पत्ति की जाती हो वहाँ लाटानुप्रास होता है यथा
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ
तुभ्यं नमः क्षितितलामल भूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिनभवोदधि शोषणाय ॥ २६ ॥
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इस पद्य में तुभ्यं नमः इन पदों के प्रयोग से लाटानुप्रास (पदानुप्रास) की अभिव्यक्ति होती है।
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यमक अलंकार - जहाँ एक शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ प्राप्त होते
हैं वहाँ यमक अलंकार होता है यथा
बुद्धस्त्वमेव विवुधार्चित बुद्धि बोधात् त्वं शंड्ङ्करोऽसि भवनत्रय शंकरत्वात् । धातासि धीरशिवमार्ग विधेर्विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥
इस पद में बुद्ध, विधाता एवं शंकर शब्दों में अनेकार्थ होने से यहाँ यमक
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