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SHRUTSAGAR
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October-2015
उपर्युक्त पंक्ति से स्पष्ट होता है कि कर्ता तपागच्छीय आचार्य श्री हेमविमलसूरि के प्रशिष्य व आचार्य श्री सौभाग्यहर्षसूरि के शिष्य हैं एवं इनका नाम “सोमल” है. यहाँ प्रश्न उठता है कि सोमविमल शब्द में सोम के बाद (विम) लिखना रह गया या गुरुजनों के द्वारा पुकार नाम किंवा दुलारा नाम सोमल रहा होगा, जिसे कर्ता ने यथावत् रखना उचित समझा. इस प्रकार के उदाहरण तो विद्वानों के अक्सर प्राप्त होते रहते हैं. इतनी बात तय है कि इस स्तवन में जो उक्त दोनों गुरुजनों के नाम लिये गये हैं, उसी प्रकार से आचार्य सोमविमलसूरि रचित अन्य कृतियों में भी पाये जाते हैं. अतः शंकामुक्त होकर सोमल को सोमविमलसूरि स्वीकारने में संशय नहीं होना चाहिये. स्तवनकार आचार्य श्री सोमविमलसूरि अद्भुत प्रतिभा के धनी, अद्वितीय विद्वान, शासन के प्रति समर्पित भाव रखनेवाले जिनशासन के दिवाकर थे, तभी तो मुनि अवस्था से उत्तरोत्तर तपागच्छ के गच्छनायक पद पर आसीन हुए. इनके शिष्य आनंदसोम द्वारा रचित सोमविमलसूरि रास में इनका सविस्तृत वर्णन मिलता है. यह रास पूज्य जिनविजयजी द्वारा संपादित जैन ऐतिहासिक काव्य संचय नामक पुस्तक के पत्र - १३४ से १४९ में प्रकाशित है. जैन गूर्जर कविओ भाग-२ के पत्र - २ पर सोमविमलसूरि रास का संदर्भ देकर आचार्य श्री सोमविमलसूरि का परिचय दिया गया है. इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
खम्भात में समधर मंत्री के वंशज रूपराज (रूपवंत) के सुपुत्र व माता अमरादे के कुक्षिरत्न थे. जन्म का नाम जसवंत था. संवत् १५७४ में तपागच्छाधिपति आचार्य श्री हेमविमलसूरि के द्वारा आचार्य श्री सौभाग्यहर्षसूरि से दीक्षाग्रहण किया. दीक्षानाम सोमविमल रखा गया. सिरोही (राज.) में आचार्य श्री सौभाग्यहर्षसूरि द्वारा संवत् १५८३ में पंडितपद प्राप्त हुआ. अहमदाबाद संघ के आग्रह से बिजापुर में उपाध्यायपद प्रदान किया गया. संवत् १५९७ आश्विन शुक्ल पंचमी को आचार्यपद से विभूषित हुए. संवत् १६०५ वसंतपंचमी के रोज खम्भात में गच्छनायकपदभार से इन्हें अलंकृत किया गया. संवत् १६३७ के मार्गशीर्ष मास में इनका स्वर्गवास हुआ. अतः इनका सत्तासमय दीक्षा वर्ष १५७४ से १६३७ निश्चित रूप से तय हुआ. इनके द्वारा रचित अग्रलिखित उल्लेखनीय कृतियाँ हैं
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