Book Title: Shrutsagar 2015 10 Volume 01 05
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 9 अक्तूबर २०१५ पूर्वपाद के अंतिम शब्दों के साथ तुक मिलाने हेतु किया गया हो, प्रतिलेखक द्वारा भूल से कहीं-कहीं मात्राएँ छुट गयी हों. निश्चित तौर पर कह नहीं सकते कि कारण क्या है? हमें इतना लाभ अवश्य ही मिलता है कि शब्दसंक्षेप या मात्रालोपवाले शब्दों का अतिरिक्त ज्ञान प्राप्त होता है. कुछेक उदाहरण देखेंगाथांक-२ में “रिषभघरिणि नारी देवाणंद” यहाँ पूर्वपाद के अंत में आणंद के साथ तुक मिलाने हेतु देवाणंद योग्य ही है. किन्तु सावधानी रखनी है कि देवाणंद शब्द से पुरुषवाची शब्द का बोध होता है. यहाँ रिषभघरिणि अर्थात् ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा अर्थ जानने योग्य है. मात्रालोप से पुलिंग व स्त्रीलिंग में थोड़ी सी दुविधा तो होती है परन्तु प्रसंग से अर्थ स्पष्ट हो जाता है. इसी गाथा में “आसाढ सकल छठि ” यहाँ सुकल (शुक्लपक्ष) की जगह सकल के 'स' में उकार का मात्रालोप हुआ है. जैसे संस्कृत में एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं. उसी प्रकार देशी भाषाओं में भी एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं. अन्तर इतना है कि संस्कृत शब्द शुद्धप्राय होता है एवं देशी शब्दों में इस प्रकार मात्रालोपवाले शब्द, संक्षिप्त नाम वाले शब्द, 'श, ष की जगह 'स' प्रयुक्त होना, 'ष' की जगह 'ख' तथा 'ख' की जगह क्वचित् 'ष' आदि प्रकार के शब्द ग्राह्य होते हैं. दूसरी बात है कि आज जो गुजराती में 'अने' का उच्चारण होता है वही पुरानी गुजराती में 'अनइ' एवं संक्षिप्त रूप “नि” का भी प्रयोग मिलता है. इस रचना में दोनों के प्रयोग मिलते हैं. देशी भाषाकीय ज्ञान में अभिवृद्धि के लिये भी यह निमित्त बनता है. ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं. विद्वान पाठकवर्ग स्वयं पढकर इसका आनन्द उठावें. रचनाकाल - प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख नहीं है. इतनी बात तय है कि प्रत का लेखन संवत् १६८२ है, तो रचना इसके पूर्व की ही होनी चाहिये. इनके द्वारा रचित 'धम्मिल रास' में रचना संवत् १५९१ का उल्लेख है, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वि. १६वीं का अन्तकाल या १७वीं का पूर्वार्द्ध काल इस कृति का रचना संवत् होना चाहिये. कृति प्रणेता परिचय - प्रशस्ति में कर्ता ने अपने नाम के संदर्भ में गाथा१०३ में इस प्रकार उल्लेख किया है- “तपगच्छ निर्मल हेमविमलसूरि सीसह जगि सुणु, सौभाग्यहरषई सूरि सीसह श्रीसोमल संधुणिओ ॥ १०३ ॥” For Private and Personal Use Only

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