Book Title: Shrutsagar 2015 04 Volume 01 11
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रैल - २०१५ 19 श्रुतसागर विविध सदियों में विविध प्रतिलेखकों द्वारा लिखित हस्तप्रतों में काल, क्षेत्र, परंपरा (जैन, जैनेतर, राजकीय, व्यापारी एवं धर्मों में भी संप्रदाय विशेष यथाश्वेताम्बर, दिगम्बर प्रतों में दिखने वाला स्पष्ट भेद) प्रतिलेखक की कक्षा, उपयोगिता लेखन आधार-लिप्यासन आदि अनेक परिबलों के चलते वैविध्य नजर आता है. जितनी प्रतें उतनी विविधताएँ प्रायः होती हैं. प्रत्येक प्रत की अपनी-अपनी कुछ न कुछ विशेषताएँ होती हैं, फिर भी कुछेक अवधारणाओं के आधार पर परंपरा से आकार व प्रकारों का प्रचलन पाया गया है. हस्तप्रतों के मुख्य दो स्वरूप हैं- बाह्य एवं अभ्यंतर बाह्य प्रकार यानी हस्तप्रत का दृश्यमान आकार-प्रकारमय बाहरी भौतिक स्वरूप. अलग-अलग स्वरूप की प्रतों को पहचानने के लिए आगमों में तदनुसार अलग-अलग नाम भी प्रचलन में थे. जो निम्न लिखित हैं १. गंडी २. कच्छपी ३. मुष्टि ४. संपुटफ ५. छेदपाटी इसके अलावा अन्य भी कई प्रकार बाद में प्रचलित हुए, इन में से कुछ प्रकार यह है कि १. गडी २. गोल ३. गोटका किस प्रकार की प्रतों को गंडी आदि कहा जाता है? उसके बारे में कुछ विस्तार से देखते हैं. यथा१. गंडी : जिस प्रत की मोटाई व चौडाई एक समान एवं लंबाई उससे कुछ विशेष होती है, ऐसी गंडिका समान प्रतों को गंडी कहते हैं. इस प्रकार की प्रतों में ताडपत्त्रीय ग्रंथ विशेष होते हैं एवं ताडपत्र की तरह लिखी गई कागज की कुछेक प्रतों को भी गंडी कहा जाता है. For Private and Personal Use Only

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