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हस्तप्रतपरिचय
गजेन्द्र पढियार गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुडफलए तहा छिवाडी य। एयं पुत्थयपणगं, वक्खाणमिणं भवे तस्स।
आज के कम्प्युटर व मुद्रण युग में शास्त्रों के हस्तप्रत स्वरूप में लेखन, पठनपाठन आदि की परंपरा प्रायः बहुत ही कम हो गई है. मुद्रण में प्रारंभ कालीन मुद्रण व आधुनिक मुद्रण में भी काफी परिवर्तन दिखाई देता है. मुद्रण युग के प्रारंभ कालीन शिलाछाप, लिथोप्रिन्ट आदि के ग्रंथ भी दुर्लभप्राय हो चुके हैं. हस्तप्रतलेखन तो उससे भी आगे की बात है. आज इस विषय में कुछेक जगह जागृति आई है, लोगों में हस्तप्रतों के प्रति जिज्ञासा बढती जा रही है. फिर भी यूँ देखा जाय तो लोगों को हस्तप्रत के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं हैं, हस्तप्रत शब्द से भी कई लोग अनजान हैं. लोगों की जिज्ञासा संतृप्त बने व श्रुतसंरक्षण, संवर्धन आदि में उपयोगी बने इस भावना से यहाँ हस्तप्रतों का साधारण परिचय देने का एक नम्र प्रयास किया जा रहा है. ___ हस्तप्रत अर्थात् हाथों से लिखी गई विषयवस्तु. वैसे आज भी डायरी, नोटबुक आदि में कई विवरण हाथों से ही लिखे जाते हैं, फिर भी उसे वर्तमान व्याख्या में हस्तप्रत नहीं कहा जाता है. हस्तप्रत शब्द प्राचीन साहित्य के लिए विशेषतः प्रयुक्त होता है. 'हस्तप्रत' शब्द सुनते ही एक अलग छवी नजर के सामने उभर आती है.
हस्त यानी हाथ, प्रत यानी प्रति, पुस्तक. हाथों से लिखी गई जो प्रति उसे कहते हैं हस्तप्रत. पहले तो मौखिक ही सुनकर श्रवण के माध्यम से शास्त्रपाठ लिया/दिया जाता था. श्रवण के माध्यम से प्राप्त होने वाले ज्ञान को ही श्रुतज्ञान कहा गया है. समयान्तर स्मृतिशक्ति कम होने के कारण ग्रंथों का लेखन कार्य प्रारंभ किया गया. सर्वप्रथम लिखी गई प्रति के ऊपर से कालक्रम में उत्तरोत्तर अन्य प्रतियाँ बनने लगीं जिन्हें प्रतिलिपि कहा जाता है, इस प्रतिलिपि शब्द पर से प्रति व क्रमशः प्रत शब्द का प्रचलन हुआ हो ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है. एक संभावना यह भी है कि बहुत से पन्नों की परतें जिसमें हो वह है प्रत. इस प्रकार हस्तप्रत शब्द समाज में प्रयुक्त हुआ. हस्तप्रत को पाण्डुलिपि भी कहते हैं. पाण्डु यानी पीला. पहले शास्तपत्र पीले वर्ण से रंगे जाते थे (आज भी जैनेतर प्रतों में मिलते हैं) अतः पांडु रंग के पत्रों के ऊपर लिपिबद्ध जो ग्रंथ, वह है पांडुलिपि.
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