Book Title: Shatkhandagama Pustak 10 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay AmravatiPage 11
________________ (४) प्रस्तावना है। (११) वह कथंचित् ओम है, क्योंकि, उसके प्रदेशोंमें कदाचित् हानि देखी जाती है। (१२) कथंचित् वह विशिष्ट है, क्योंकि, कदाचित् उसके प्रदेशोंमें व्ययकी अपेक्षा आयकी अधिकता देखी जाती है । (१३) कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, प्रत्येक पदके अवयवकी विवक्षामें वृद्धि और हानि दोनोंकी ही सम्भावना नहीं है। इसी प्रकारसे उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है इत्यादि स्वरूपसे एक एक पदको विवक्षित करके उसके विषयमें भी शेष १२ पदोंकी सम्भावनाका विचार किया गया है ( देखिये पृ. ३० पर दी गई इन पदोंकी तालिका )। (२) स्वामित्व अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट आदि पद किन किन जीवोंमें किस किस प्रकारसे सम्भव हैं, इस प्रकारसे उनके स्वामियोंका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरणीयको लेकर उसकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीका विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें साधिक २००० सागरोपमोंसे हीन कर्मस्थिति (७० कोड़ाकोड़ि सागरोपम) प्रमाण रहा है, उनमें परिभ्रमण करता हुआ जो पर्याप्तोंमें बहुत वार और अपर्याप्तोंमें थोड़े वार उत्पन्न होता है ( भवावास), पर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ दीर्घ आयुवालोंमें तथा अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ अल्प आयुवालोंमें ही जो उत्पन्न होता है ( अद्धावास), तथा दीर्घ आयुवालोंमें उत्पन्न हो करके जो सर्वलघु कालमें पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है, जब जब वह आयुको बांधता है तत्प्रायोग्य जघन्य योगके द्वारा ही बांधता है ( आयुआवास ), जो उपरिम स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको तथा अधस्तन स्थितियोंके निषेकके जघन्य पदको करता है (अपकर्षण-उत्कर्षणआवास अथवा प्रदेशविन्यासावास), बहुत बहुत वार जो उत्कृष्ट योगस्थामोंको प्राप्त होता है (योगावास ), तथा बहुत बहुत वार जो मन्द संक्लेश परिणामोंको प्राप्त होता है (संक्लेशावास)। इस प्रकार उक्त जीवोंमें परिभ्रमण करके पश्चात् जो बादर त्रस . पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, उनमें परिभ्रमण कराते हुए उसके विषयमें पहिलेके ही समान यहां भी भवावास, अद्धावास, आयुआवास, अपकर्षण-उत्कर्षणआवास, योगावास और संक्लेशावास, इन आवासोंकी प्ररूपणा की गई है। उक्त रीतिसे परिभ्रमण करता हुआ जो अन्तिम भवग्रहणमें सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ है, उनमें उत्पन्न हो करके प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होते हुए जिसने उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया है, उत्कृष्ट वृद्धिसे जो वृद्धिंगत हुआ है, सर्वलघु अन्तमुहूर्त कालमें जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, वहां ३३ सागरोपम काल तक जो रहा है, बहुत बहुत बार जो उत्कृष्ट योगस्थानोंको तथा बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश परिणामोंको जो प्राप्त हुआ है, उक्त प्रकारसे परिभ्रमण करते हुए जीवितके थोड़ेसे अवशिष्ट रहनेपर जो योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें जो आवलीके असंख्यातवें भाग रहा है, द्विचरम व त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है, तथा चरम व द्विचरम समयमें जो उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है। ऐसे उपर्युक्त जीवके नारक भवके अन्तिम समयमें स्थित होनेपर ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट रोती है (पही गणितकौशिक जविका लक्षण है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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