Book Title: Shatkhandagama Pustak 10
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 9
________________ (२) प्रस्तावना २ वेदनानयविभाषणता वेदनानिक्षेप अनुयोगद्वारमें बतलाये गये वेदनाके उन अनेक अर्थों मेंसे यहां कौनसा अर्थ प्रकृत है, यह प्रगट करनेके लिये प्रस्तुत अनुयोगद्वारकी आवश्यकता हुई । तदनुसार यहां यह बतलाया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार, इन तीन द्रव्यार्थिक नयोंके अवलम्बनसे वेदनानिक्षेपमें निर्दिष्ट सभी प्रकारकी वेदनायें अपक्षित हैं। ऋजुसूत्र नय एक स्थापनावेदनाको स्वीकार नहीं करता, शेष सब वेदनाओंको वह भी स्वीकार करता है । स्थापनावेदनाको स्वीकार न करनेका कारण यह है कि स्थापनानिक्षेपमें पुरुषसंकल्पके वशसे पदार्थको निज स्वरूपसे ग्रहण न करके अन्य स्वरूपसे ग्रहण किया जाता है। यह ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, एक समयवर्ती वर्तमान पर्यायको विषय करनेवाले इस नयके अनुसार पदार्थका अन्य स्वरूपसे परिणमन हो नहीं सकता। शब्दनय नामवेदना और भाववेदनाको ही ग्रहण करता है, स्थापनावेदना और द्रव्यवदनाको वह ग्रहण नहीं करता। यहां द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा बन्ध, उदय व सत्त्व स्वरूप नोआगमकर्मद्रव्यवेदनाको; ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा उदयगत कर्मवेदनाको, तथा शब्दनयकी अपेक्षा कर्मके उदय व बन्धसे जनित भाववेदनाको प्रकृत बतलाया गया है। ३ वेदनानामविधान बन्ध, उदय व सत्त्व स्वरूपसे जीवमें स्थित कर्मरूप पौद्गलिक स्कन्धोंमें कहां कहां किस किस नयका कैसा प्रयोग होता है, इस प्रकार नयाश्रित प्रयोगप्ररूपणाके लिये प्रस्तुत अनुयोगद्वारकी आवश्यकता बतलाई गई है। तदनुसार नैगम और व्यवहार नयके आश्रयसे नोआगमद्रव्यकर्मवेदना ज्ञानावरणीय आदिके भेदसे आठ प्रकारकी कही गई है, कारण यह कि यथाक्रमसे उनके अज्ञान, अदर्शन, सुख-दुखवेदन, मिथ्यात्व व कषाय, भवधारण, शरीररचना, गोत्र एवं वीर्यादिविषयक विघ्न स्वरूप आठ प्रकारके कार्य देखे जाते हैं। यह हुई वेदनाविधानकी प्ररूपणा । नामविधानकी प्ररूपणामें ज्ञानावरणीय आदि रूप कर्मद्रव्यको ही ' वेदना' कहा गया है। संग्रहनयकी अपेक्षा सामान्यसे आठों कर्मोंको एक वेदना रूपसे ग्रहण किया गया है, क्योंकि, एक ही वेदना शब्दसे समस्त वेदनाविशेषोंकी अविनाभाविनी एक वेदना जातिकी उपलब्धि होती है । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना आदिका निषेध कर एक मात्र वेदनीय कर्मको ही वेदना स्वीकार किया गया है, क्याकि, लोकमें सुख-दुखके विषयमें ही वेदना शब्दका व्यवहार देखा जाता है । शब्दनयकी अपेक्षा वेदनीय कर्मद्रव्यके उदयसे उत्पन्न सुख-दुखका अथवा आठ कर्मोंके उदयसे उत्पन्न जीवपरिणामको ही वेदना कहा गया है, क्योंकि, शब्दनयका विषय द्रव्य सम्भव नहीं है। ४ वेदनाद्रव्यविधान वेदनारूप द्रव्यके सम्बन्धमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट एवं जघन्य आदि पदोंकी प्ररूपणाका नाम वेदनाद्रव्यविधान है। इसमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य बतलाये गये हैं। (१) पदमीमांसामें ज्ञानावरणीय आदि द्रव्यवेदनाके विषयमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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