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प्राक् कथन
षट्खंडागम भाग ९ को प्रकाशित हुए कोई पांच वर्ष व्यतीत हो गये । इस असाधारण विलम्बके पश्चात् यह दसवां भाग पाठकोंके हाथोंमें जा रहा है, इसका हमें खेद है। इस विलम्बका विशेष कारण है मुद्रणालयकी व्यवस्थामें गड़बड़ी और विपरिवर्तन । बीच में तो हमें यही दिखाई देने लगा था कि इस भागका शेषांश संभवतः अन्यत्र मुद्रित कराना पड़ेगा । किन्तु फिर व्यवस्था सम्हल गई, और कार्य धीरे धीरे अग्रसर होता हुआ अब यह भाग पूर्ण हो पाया है। पाठक इसके लिये हमें क्षमा करें। उन्हें यह जानकर संतोष होगा कि मुद्रणालयकी उक्त अव्यवस्थाके कालमें भी हम प्रमादग्रस्त नहीं रहे । अगले दो भागोंका मुद्रण भिन्न भिन्न मुद्रणालयोंमें चलता रहा है जिसके फल स्वरूप अब कुछ महिनोंके भीतर ही वे भाग भी पाठकोंके हाथोंमें पहुंच सकेंगे।
इस कालमें हमारा वियोग पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्रीसे हो गया जिसका हमें भारी दुख है। पंडितजी इस प्रकाशनके प्रारंभसे ही सम्पादकमण्डलमें रहे और यथासमय हमें उनसे पर्याप्त साहाय्य मिलता रहा। इस कारण उनका वियोग हमें बहुत खटका है। किन्तु कालकी गतिसे किसीका वश नहीं । संयोग-वियोगका क्रम अनिवार्य है। इसी विचारसे संतोष धारण करना पड़ता है।
__ इसी कालान्तरमें ताम्रपट लिखित प्रतिका भी प्रकाशन हो गया। जबसे यह प्रति हमारे हस्तगत हुई तबसे हमने अपने पाठके संशोधनमें अमरावती, कारंजा और आराकी हस्तलिखित प्रतियोंके साथ साथ इस मुद्रित प्रतिका भी उपयोग किया है। किन्तु हम अनेक स्थलोंपर इस संस्करणके पाठको भी स्वीकृत नहीं कर सके, जैसा कि पाठक पाद-टिप्पणमें दिये गये पाठान्तरोंसे जान सकेंगे। इस उपयोगके लिये हम उक्त प्रतियोंके अधिकारियों एवं ताम्रपट प्रतिके सम्पादकों व प्रकाशकोंके अनुगृहीत हैं।
प्रस्तुत भागके तैयार करनेमें पृष्ठ २९६ तक पाठ व अनुवाद संशोधनमें हमें पं. फूलचन्द्रजी शास्त्रीका सहयोग मिला है जिसके लिये हम उनके आभारी हैं। तथा पं. बालचन्द्र जी शास्त्रीको प्रूफपाठन, पाठमिलान एवं सूत्रपाठादि संकलन कार्यमें उनके चिरंजीव राजकुमार और नरेन्द्रकुमारसे भी सहायता मिलती रही है। इस कार्यके लिये सम्पादक-मण्डलकी ओर से वे आशीर्वादके पात्र हैं। श्री. पं. रतनचन्दजी मुख्तारने प्रस्तुत पुस्तकके मुद्रित फार्मोंपरसे स्वाध्याय कर अनेक संशोधन प्रस्तुत किये हैं जिनको हम साभार शुद्धि-पत्रमें सम्मिलित कर रहे हैं। शेष व्यवस्था पूर्ववत् स्थिर है।
__ श्रद्धेय पंडित नाथूरामजी प्रेमीका इस प्रकाशन कार्यमें आदिसे ही पूर्ण सहयोग रहा है। इस भागके प्रकाशनमें जो भारी विलम्ब हुआ उससे इस प्रकाशन कार्यका कोष प्रायः समाप्त हो गया है। इससे जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ उसके निवारणका भार प्रेमीजीने सहज ही स्वीकार कर लिया है । इसके लिये उनका जितना उपकार माना जाय थोड़ा है। १-११-१४}
हीरालाल जैन
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