Book Title: Shantisudha Sindhu Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 4
________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) करनेवाली कुवृद्धिका त्याग कर देता है । प्रमादका त्याग कर ध्यान तपश्चरणके द्वारा उसको प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है। ऐसा यह आत्मा अपने उसी आत्मामें लीन होता हुआ शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । प्रश्न:- मिथ्याल्बमूदः कथन प्रभो मे, मुखी भवेलकापि न वा त्रिलोके । अर्थ:- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि मिथ्यान्व कर्मके उदयसे अत्यंत अज्ञानी हुआ यह जीव तीनों लोकोंमें कहीं भी सुखी होता है या नहीं होता? उत्तर:- मिथ्यात्वमूढो ह्यमतिश्च भुंक्ते, मोऽपि नियनकाय दुःखन् । सन्तोषहीनश्च नरो बराको, दुःखी धनाढयोऽपि विचित्रवार्ता ॥ ५ ॥ [सम्यक्त्वशाली नरकेऽपि नित्यं, धीरो नरः स्वर्गसुखं च भुंक्ते । सन्तोषसम्पन्न नरो यर्थव, दारिद्रयुक्तोऽपि सदा सुखीह ॥ ६ ॥ अर्थ:- जो नीच मनुष्य मिथ्यादृष्टि होता है तथा उम मिथ्यात्वके कारण आत्मज्ञानसे सर्वथा रहित अज्ञानी होता है और इसीलिए जो बुद्धिहीन कहलाता है ऐसा मनुष्य सदा असंतोषी होता है तथा एमा मनुष्य स्वर्ग में जाकर भी नरकोंके दुःख भोगता है और धनाढ्य होकर भी सदाकाल दुःखी बना रहता है । संसारमें यह एक विचित्र बात है। इसी प्रकार जो पुरुष सम्यग्दृष्टी होता है वह धीर वीर होता है और वह नरक में भी स्वर्गके सुखोंका अनुभव करता रहता है । तथा जिम प्रकार संतोषी पुरुष सदा सुखी रहता है उसी प्रकार वह सम्यग्दृष्टी पुरुष भी दरिद्री होनेपर भी सदा काल मुखी रहता है ।। भावार्थ:- स्वर्गमें नरकके दुःख भोगना और धनी होकर भी दुःखी रहना एक प्रकारसे विचित्र बात है । परन्तु विचारपूर्वक देखाPage Navigation
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