Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 138
________________ FFFFFF अनुभव होनेवाले अनेक प्रकार के दैविक सुख भोगने लगे । स्वर्गों में देवों को देवागनाओं से जो सुख प्राप्त होता है, उससे भी अधिक सुख उन अहमिन्द्रों को प्राप्त होता है । उन सब अहमिन्द्रों की विभूति एक-सी होती है, सब चतुर होते हैं, सब का समान पद रहता हे, भोगोपभोग आदि की सामग्री सब समान होती है, विमानों की ऋद्धियाँ समान होती हैं, मान-सम्मान सब समान होता है, सब परस्पर प्रेम रखते हैं, सब के हृदय शुद्ध रहते हैं, हीनाधिक पद किसी का नहीं होता तथा सब के हृदय में प्रेम रहता है । "मैं ही इन्द्र अतिरिक्त अन्य कोई इन्द्र नहीं है'-इस प्रकार अपने हृदय में मान कर वे सदा सन्तुष्ट व सुखी रहते हैं । सब अहमिन्द्रों की लेश्या शुक्ल रहती है, वे सबं उपमा रहित, विषाद रहित तथा मद रहित होते हैं। इस प्रकार वे सब अहमिन्द्र समान ही होते हैं । वे दोनों ही अहमिन्द्र कभी तो अन्य अहमिन्द्रों के साथ रत्नत्रय को प्रगट करनेवाली, धर्म की द्योतक तथा शुभ कर्मों का बन्ध करनेवाली गोष्ठी एवं धर्म चर्चा करते थे, तो कभी अवधिज्ञान से जिनेन्द्र भगवान के कल्याणकों को ज्ञात कर 'तीर्थंकर पद' को प्राप्त ॥ करने की अभिलाषा लिए बड़ी भक्ति से अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही मस्तक नवा कर उन्हें नमस्कार करते थे । वे दोनों ही अहमिन्द्र प्रसन्न होकर अपने विमान के जिनालय में सदैव श्री जिनेन्द्र देव का पूजन करते थे । वे दोनों ही अहमिन्द्र काम-रूपी अग्नि के दाह से रहित थे, कहीं आने-जाने की लालसा उन्हें थी ही नहीं तथा आत्मा से उत्पन्न हुए चित्त को प्रसन्न करानेवाले अनेक प्रकार के सुख भोगते थे ॥२८०॥ उन्हें सप्तम वसुधा तक अवधिज्ञान था, वहाँ तक विक्रिया ऋद्धि थी, वहाँ तक उनका प्रताप था एवं गमन करने की शक्ति थी । उनको डेढ़ हस्त प्रमाण देह थी । उनकी मुखमुद्रा सौम्य थी । वे दोनों प्रचण्ड बलवान थे, उनका सम-चतुरस्र-संस्थान था एवं ऐसे प्रतीत होते थे, मानो पुण्य का समूह ही हों । उनकी उन्तीस सागर की आयु थी। उन्हें न कभी रोग, न क्लेश, न अनिष्ट संयोग, न इष्ट वियोग होता था । उन्तीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर सब दिशाओं को सुगन्धित करनेवाला उच्छ्वास लेते थे तथा इस प्रकार वे सुख के महासागर में निमग्न रहते थे । इस प्रकार धर्म के प्रभाव से वे दोनों ही अहमिन्द्र, आत्मा से उत्पन्न हुए, राग-रहित समस्त दोषों से रहित, स्वर्ग के सुखों से उत्तम, उपमा रहित, अत्यन्त सारभूत एवं नारी आदि के समागम से रहित सुखों का सदैव अनुभव किया करते थे । वे दोनों अहमिन्द्र निःशंकित आदि गुणों से परिपूर्ण तत्वों का श्रद्धान करते थे, भगवान श्री अरहन्त देव की भक्ति करते थे, चारित्र धर्म की भावना FFFF | १२५

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