Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 244
________________ BF FE शेष नहीं है। जहाँ इस पर जीव ने अनेक बार जन्म न लिया हो, मरण न किया हो । यह जीव मिथ्यात्वं, || काम, कषाय आदि भावों से प्रतिदिन संसार-बन्ध के कारण एवं अत्यन्त दःख देनेवाले कर्मों का बन्ध करता रहता है । इस प्रकार कर्मों से बँधे हुए कुमार्गगामी प्राणी धर्म-रूपी जलपोत के न मिलने से इस | अनादि संसार रूपी समुद्र में गोता खाते रहते हैं । यह अत्यन्त कामात, मर्ख प्राणी संसार में दुःख को ही सख मान लेते हैं। परन्त ज्ञानी पुरुष तो कामसेवन आदि से उत्पन्न हए सखों को भी दुःख ही समझते । हैं । जिस प्रकार विष से भरे हुए घट में कभी अमत नहीं हो सकता. उसी प्रकार अपरिमित दुःखों से भरे हुए इस निर्गुण संसार में कभी सुख नहीं मिल सकता । इस प्रकार इस संसार को दुःखमय समझ कर बुद्धिमानों को चारित्र धारण आदि के द्वारा अनन्त सुख का सागर मोक्ष उत्तीर्ण (सिद्ध) कर लेना चाहिये ॥४०॥ संग्रहीत पाप कर्म रूपी पाश से बँधे हुए प्राणी संसार-रूपी शत्र का नाश करनेवाले सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान तथा सम्यक्चारित्र के न मिलने से पाप, दुःख तथा भय प्रदायक निस्सार असह्य संसार में सदैव परिभ्रमण किया करते हैं । यही समझ कर संवेग आदि गुणों से सुशोभित होनेवाले पुरुषों को प्रयत्नपूर्वक यथाशीघ्र रत्नत्रय धारण कर लेना चाहिये । इति संसारानुप्रेक्षा। यह जीव एकाकी ही जन्म लेता है एवं एकाकी ही मरता है, एकाकी ही सुख भोगता है, एकाकी ही दुःखी होता है, एकाकी ही व्याधि-कष्ट सहन करता है, एकाकी ही नीरोग रहता है एवं एकाकी ही चतुर्गतियों में परिभ्रमण करता है । विषयों में अन्ध यह जीव एकाकी ही हिंसादि के द्वारा पाप कर्म का ऐसा उपार्जन करता है, जिससे कि नरक में जन्म लेकर वचनातीत अपार दुःख को भोगता है । यह मूढ़ एकाकी ही छल-कपट कर ऐसा पाप उपार्जन करता है, जिससे तिर्यन्च गति में छेदन-भेदन आदि के घनघोर दुःख सहन करता हुआ स्थावर योनि में परिभ्रमण करता है। यह प्राणी एकाकी ही अल्प-आरम्भादिक व प्राप्त करता है एवं अनेक योनियों में पाप-पुण्य से उत्पन्न हुए सुख-दुःख भोगता रहता ||२३१ है । यह जीव एकाकी सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र, सद्धर्म, दान, पूजा आदि के द्वारा धम उपार्जन कर स्वर्ग में सुदीर्घकाल सख भोगता रहता है। प्राणी एकाकी ही तप-चारित्र आदि के द्वारा अष्ट कर्मों का विनाश कर जन्म-मरण आदि से रहित एवं अनन्त सख का स्थान मोक्ष पद प्राप्त करता है । जो प्राणी अपने परिवार के लिए इन्द्रियों एवं धनादि के द्वारा पाप उपार्जन करता है, वह एकाकी ही दुतिया 444

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