Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 255
________________ . . 4 Fb F FE के देव एवं इन्द्र अपने-अपने वाहन एवं देवागंनाओं के संग अपनी कान्ति से आकाश को प्रकाशित करते हुए गीत गाते, नृत्य करते हुए आए एवं आते ही उन्होंने जगत्गुरु भगवान को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । उस समय देवों की सेना, देवांगनाएँ एवं देव समस्त आकाश, नगर की वीथियों (गलियों), राजभवन, नगर के बाह्य वन को अवरुद्ध कर खड़े हो गये ॥१८०॥ तदनन्तर इन्द्रादिक देवों ने अपार उत्साह के संग दीक्षा कल्याणक का उत्सव सम्पन्न करने के लिए महान् विभूतिपूर्वक मुक्ता-मालाओं से सुशोभित होकर क्षीरसागर के जल से भरे हुए सुवर्ण के उत्तुंग (ऊँचे) एवं गंभीर (गहरे) उत्तम कलशों से भगवान का सर्वोत्तम महाभिषेक किया । फिर उन इन्द्रों ने दिव्य आभूषण, वस्त्र तथा मालाओं से भगवान को विभूषित किया । भगवान ने विराट उत्सव एवं विभूति के संग अपने पुत्र नारायण का राज्याभिषेक किया एवं समग्र राज्य-सम्पदा उसे सौंप दी । तत्पश्चात् दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा के अनुरूप भगवान, देवों द्वारा निर्मित्त रत्नमयी ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक पालकी पर आरूढ़ हुए । राजा, विद्याधर, देव सभी उस पालकी को कन्धे पर उठाकर शीघ्र ही आकाश मार्ग से ले चले । उस समय देव पुष्पों की वर्षा कर रहे थे, 'जय-जय' शब्द कर रहे थे एवं गन्धोदक की वर्षा के साथ शीतल मन्द समीर प्रवाहित हो रहा था । उस समय इन्द्रों के शरीर की कान्ति दिग्दिगन्त तक फैल रही थी एवं दुन्दुभियों के शब्द समस्त दिशाओं में प्रतिध्वनित हो रहे थे । इन्द्रगण भगवान के ऊपर चँवर ढुला रहे थे एवं दिक्कुमारियाँ भुजाओं में मंगल द्रव्य लेकर भगवान के आगे-आगे चल रही थीं। उस समय वाद्यों के शब्दों से, नृत्यों से, जय-जयकारों के कोलाहल से एवं गन्धर्वो के द्वारा गाये जाने वाले गीतों से संसार भर को अपूर्व आनन्द हो रहा था । इन्द्रों ने छत्र आदि द्वारा अनेक प्रकार की शोभा कर उनका माहात्म्य प्रगट किया था तथा नगर से निकलते हुए नगर-निवासियों ने इस प्रकार उनसे शुभ कामना प्रकट की-“हे नृपाधीश ! आप जाइये, आपका मोक्षमार्ग कल्याणकारी हो ।' उन्हें जाते हुए देखकर कितनी ही जनता परस्पर कह रही थी कि संसार में यह भी एक आश्चर्य की घटना है कि ये भगवान रत-निधि-रमणी आदि समस्त का परित्याग कर वन को जा रहे हैं । यह सुनकर अन्य कितने ही जन कहने लगे कि संसार में ऐसे उत्तम मनुष्य कतिपय ही होते हैं, जो लक्ष्मी (वैभव) को भरपूर भोग भी सकते हैं एवं क्षणभर में ही उसे त्याग भी कहते हैं । अन्य कितने ही व्यक्ति कहने लगे-'ये भगवान तीर्थंकर हैं, चक्रवर्ती हैं एवं कामदेव हैं; इसलिए ये 444 २४२

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