Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 263
________________ 4 Fb PR5 धारण करनेवाली 'जगती' थी । इन जगतियों पर सुवर्ण के षोडश-षोडश सोपान (सीढ़ियाँ) बने हुए थे, भगवान के अभिषेक से वे पवित्र थीं एवं चार-चार गोपुरों से सुशोभित तीन-तीन कोटों से आवृत्त थीं। उन जगतियों के मध्य में दिव्य पीठिकाएँ निर्मित थीं एवं उन पर देवों के द्वारा पूज्य तीर्थंकरों की अत्यन्त भव्य प्रतिमाएँ विराजमान थीं। उन पीठि झाओं के ऊपर गगनचुम्बी मानस्तम्भ दण्डायमान अवस्थित थे। वे मानस्तम्भ अत्यन्त उत्तुंग थे एवं घण्टा, चमर, ध्वजाएँ एवं मस्तक पर परिक्रमा करते हुए छत्रों से सुशोभित थे । ऐसे मानस्तम्भ चारों दिशाओं में थे । उनको दूर से देखते ही मिथ्यादृष्टियों का मान खण्डित हो जाता था, इसलिए उनका यह सार्थक नाम 'मानस्तम्भ' प्रसिद्ध था । उन मानस्तम्भों के मध्य भाग में अनेक ऋद्धियों से सुशोभित भगवान की जो भव्य प्रतिमाएँ विराजमान थीं, उनकी पूजा इन्द्रगण क्षीरसागर के जल तथा अन्य अनेक द्रव्यों से किया करते थे । उन मानस्तम्भों के चतुर्दिक चारों दिशाओं में चार मनोहर बावड़ियाँ थीं, जो स्वच्छ जल एवं पद्मों से सुशोभित थीं। उन बावड़ियों में मणियों से सीढ़ियाँ निर्मित हुई थीं, नन्दोत्तरा आदि उनका नाम था। उनके तट पर पाद-प्रक्षालन हेतु कुण्ड बने हुए थे । भ्रमरों एवं पक्षियों से वे गुंजायमान थीं। उन बावड़ियों से कुछ ही आगे चलकर प्रत्येक मार्ग से हट कर शेष भाग में पद्मों से आवृत्त, पत्रों (पत्तियों) से अलंकृत तथा स्वच्छ जल से परिपूर्ण खाईयाँ शोभायमान थीं । इसके आन्तरिक (भीतरी) भाग में उत्कृष्ट लता वन था जो कि विविध प्रकार के वृक्ष, लता तथा सर्व ऋतुओं के पुष्पों से सुशोभित था । उस लता वन में इन्द्रों के लिए मनोहर क्रीडा पर्वत थे, विश्राम हेतु || लता भवन थे जिनके भीतर शैय्याएँ बिछी हुई थीं। स्थान-स्थान पर चन्द्रकान्त मणियों की शिलाएँ पड़ी हुई थीं। उस लता वन से आगे मार्ग से हटकर प्रथम कोट था, जो कि बहुत उत्तुंग, दैदीप्यमान व सुवर्णमय था। वह कोट ऊपर से नीचे तक कहीं तो मुक्ताओं की पंक्तियों से अलंकृत था, कहीं विद्रमों से सुशोभित था, कहीं पर नील मणियों के कारण नवीन मेघों के समतुल्य प्रतीत होता था, तो कहीं पर लाल मणियों से इन्द्रगोप के समकक्ष वर्षा ऋतु में उत्पन्न होनेवाला रक्तवर्णी पशु (लाल जानवर) सदृश मनोहर प्रतीत होता था, कहीं विद्युतप्रभा (बिजली कड़कने) के कारण से पीत (पीला) परिलक्षित होता था। इस प्रकार भव्य जीवों के मध्य में विराजमान अष्ट प्रातिहार्यों से शोभायमान एवं समस्त ऐश्वर्यमय भगवान श्री शान्तिनाथ ऐसे उत्तम परिलक्षित होते थे मानो साक्षात तेज के पुन्ज ही हों। ॥२५०

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