Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 267
________________ F4Fb F FE सुखसागर में निमग्न हैं, एवं लोक के ऊपर निवास करते हैं, वे सिद्ध या मुक्त कहलाते हैं । पृथ्वीकायिक सप्त लक्ष, जलकायिक सप्त लक्ष, अग्निकायिक सप्त लक्ष, वायुकायिक सप्त लक्ष, नित्य निगोद सप्त लक्ष, इतर निगोद सप्त लक्ष, वनस्पति दश लक्ष, द्विइन्द्रिय दो लक्ष, त्रिइन्द्रिय दो लक्ष, चतुरइन्द्रिय दो लक्ष, नारकी चार लक्ष, तिर्यन्च चार लक्ष, देव चार लक्ष एवं मनुष्य चौदह लक्ष-ये चौरासी लक्ष जीवों की जातियाँ हैं । आयु, काया, आदि के भेद से आगम में इन जीवों के अनेक भेद किए गए हैं । इसी प्रकार समस्त जीवों के कुलों की संख्या एक सौ साढ़े निन्यानवे कोटि बतलाई गई है । पाँच इन्द्रियों, मन, वचन, काय, आयु एवं श्वासोच्छ्वास-ये दश प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के होते हैं । इसी प्रकार मन के बिना असैनी पंचेन्द्रिय के नौ, मन एवं कर्ण इन्द्रिय के बिना चतुरेन्द्रिय के आठ, मन-कर्ण एवं चक्षुइन्द्रिय के बिना त्रिइन्द्रिय के सात; मन-कर्ण-चक्षु एवं नासिका के बिना दो इन्द्रिय जीवों के छः एवं मन-कर्ण-चक्षु-रसना-वचन तथा बल के बिना एकेन्द्रिय के शेष चार प्राण होते हैं । ये प्राण ही जीवों के जीवन के कारण हैं । आहार, काया, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा एवं मन-ये छः पर्याप्तियाँ कहलाती हैं । मुनिराज ने संज्ञी (सैनी) पंचेन्द्रिय के ये छहों पर्याप्तियाँ वर्णित की हैं । द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तथा असैनी पंचेन्द्रिय के मन बिना पाँच पर्याप्ति वर्णित हैं । एकेन्द्रिय जीवों के भाषा तथा मन के बिना चार पर्याप्ति श्री जिनेन्द्रदेव ने निर्धारित की हैं । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, सम्यग्दृष्टी, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमतसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशांत कषाय, क्षीण कषाय एवं संयोग केवली-ये चतुर्दश गुणस्थान मोक्ष की सीढ़ियाँ हैं तथा गुणों की स्थिति के भेद से भव्य जीवों के गुणों के वर्द्धक हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी एवं आहार-ये चतुर्दश मार्गणाएँ कहलाती हैं । इनके द्वारा जीवों के ज्ञाता विद्वान उन (जीवों) की पहिचान करते हैं । सैनी पंचेन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, एकेन्द्रिय सूक्ष्म एवं || एकेन्द्रिय बादर-ये सप्त, पर्याप्ति एवं अपर्याप्ति के भेद से चतुर्दश जीव-समास या जीवों के चतुर्दश भेद कहलाते हैं । ये चर्तुदश भेद जीवों की एकेन्द्रिय आदि जातियों से उत्पन्न होते हैं । जो संसार में पूर्व (पहिले) भी जीवित था, वर्तमान (अब) में भी जीवित है.एवं आगे भी सर्वदा जीवित रहेगा, उसको जीव कहते हैं; वह नित्य है तथा अनित्य भी है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतिज्ञान, 4 Fb FE व | २५४

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