Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 250
________________ शां ति ना थ पु रा ण 4 I ति ना थ पापी नारकी, अन्य नारकियों के द्वारा किए हुए छेदनं भेदन आदि अनेक प्रकार के घोर दुःखों को सदैव भोगते रहते हैं । वे नरक समस्त दुःखों के सागर हैं । उनमें यह जीव पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से वचनातीत दुःख भोगता रहता है, वहाँ इन जीवों को लेशमात्र भी सुख नहीं मिलता। केवल ढाई द्वीप ही ऐसा स्थान है, जिसमें कुछ जीव पुण्योपार्जन करते हैं, कुछ चारित्र धारण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं एवं कुछ हिंसा के द्वारा पाप का उपार्जन करते हैं । ज्योतिष्क तथा व्यन्तर देवों से भरे हुए असंख्यात द्वीपों में ये जीव श्री के वशीभूत होकर सदैव परिभ्रमण किया करते हैं । पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों के उदय से कुछ पुण्यपाप धर्मात्मा जीव षोडश स्वर्गों में तथा नव ग्रैवेयक आदि कल्पनातीत विमानों में अनेक प्रकार के सुख भोगते शां रहते हैं । उसके आगे सर्वदा शाश्वत (एक-सा ) रहनेवाला नित्य स्थान है जहाँ पर अनेक सुखों में लीन तथा तीनों लोकों के द्वारा वन्दनीय सिद्धात्मा निवास करते हैं; उन्हें भी मैं नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार लोक के विचित्र स्वरूप को ज्ञात कर विद्वानगण रागादिक को त्याग कर मोक्ष प्राप्त करने का उपाय करते हैं । यह अनेक प्रकार का लोक द्रव्यों से भरपूर है, उत्पाद- ध्रौव्य स्वरूप है, सर्वज्ञ को ज्ञानगोचर है, सुख-दुःख से भरा हुआ है, अनादि है एवं सर्वदा स्थिर रहनेवाला अविनाशी है । लोक को ऐसा जानकर बुद्धिमान प्राणी रत्नत्रय की सिद्धि द्वारा उसके ऊपर जाकर विराजमान होते हैं । इति लोकानुप्रेक्षा ॥ १० ॥ बारम्बार जन्म-मरण से पीड़ित यह जीव अनंतकाल तक निगोद में परिभ्रमण करता रहा एवं तत्पश्चात् अन्य स्थावर पर्यायों में भ्रमण करता रहा । त्रस पर्याय तक नहीं पा सका । कदाचित बड़ी कठिनता से त्रस पर्याय मिल भी जाये तो सुदीर्घ काल तक लट-कुन्थ आदि कीड़े-मकोड़ों की योनियों में भटकता रहता है, पंचेन्द्रिय पर्याय नहीं पाता ॥१२०॥ कदाचित् पंचेन्द्रिय भी हो जाये तो दीर्घ काल तक असैनी ही बना रहता है, धर्मबुद्धि से रहित होने के कारण सैनी (संज्ञी) नहीं होता । कदाचित् सैनी हो भी जाए तो सिंह - व्याघ्र आदि क्रूर जातियों में उत्पन्न होकर हिंसादिक द्वारा महापाप का बन्ध करता है, जिससे कि नरकादिकों में जाकर अनेक सागर पर्यंत वचनातीत दुःखों को भोगता है । पाप कर्म के उदय से यह जीव दुर्लभ मनुष्य पर्याय नहीं प्राप्त नहीं कर सकता । कदाचित् समुद्र में गिरे हुए रत्न के समतुल्य दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त कर भी ले तो फिर म्लेच्छ खण्डों में ही भ्रमण किया करता है- आर्यखण्ड में जन्म नहीं लेता । कदाचित् भाग्यवश आर्यखण्ड में भी जन्म ले ले, तो भी सुदीर्घ अवधि तक नीच कुल में ही पु रा ण २३७

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