Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 243
________________ . FFFF जलपोत से भटके (छूटे) हुए पक्षी की प्राणरक्षा तो समुद्र में कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार संसार रूपी समुद्र में निमग्न ( डूबते) हुए प्राणियों का उद्धार भी कोई नहीं कर सकता । यमराज के द्वारा कवलित इस जीव की प्राणरक्षा करने में देव, मनुष्य, मन्त्र-तन्त्र, औषधि आदि कोई समर्थ नहीं । जो मूढ़मति औषधि चण्डिका देवी, मन्त्र आदि को एकमात्र शरण मान लेते हैं, वे भी मरण को प्राप्त होते हैं, क्योंकि देव या युक्ति आदि उनकी कभी प्राणरक्षा नहीं कर सकते । यदि इन्द्रादिक देव मनुष्यों को शरण दे सकते हैं, तो फिर अपनी आयु के पूर्ण हो जाने पर उन्हें अपने पद से च्युत होकर पुनः पृथ्वी पर क्यों आना पड़ता है । इसलिये मनुष्यों को श्री जिनेन्द्रदेव वर्णित अहिंसा धर्म का ही शरण लेना चाहिये, वही पापों का नाश करनेवाला है एवं इहलोक-परलोक दोनों में संग जानेवाला है । इसके अतिरिक्त मुनिराज ने श्री अरहन्त देव आदि पन्च-परमेष्ठी का भी शरण बतलाया है, क्योंकि इस संसार रूपी समुद्र से भव्य जीवों को वे ही उत्तीर्ण (पार) करानेवाले हैं । इस असार संसार में अनन्त गुणों का समुद्र सर्वदा निश्चल रहनेवाला एवं अनन्त सुख प्रदायक मोक्षपद ही मनुष्यों का शरण है । इस प्रकार इस असार संसार को अशरण एवं सुख से अत्यन्त दूर समझकर बुद्धिमानों को तप एवं रत्नत्रय आदि के अवलम्बन द्वारा निश्चल (शाश्वत) रहनेवाला मोक्ष सिद्ध कर लेना चाहिये । जिस समय यमराज सम्मुख आता है (आयु पूर्ण हो जाती है तथा मनुष्य मरणासन्न होता है) उस समय तीनों लोकों में कोई भी चाहे वह इन्द्र, चक्रवर्ती, मन्त्र-तन्त्र, औषधि आदि कुछ भी क्यों न हो; इस जीव की व्याधि-क्लेश-विषाद-दुःख-मृत्यु आदि से रक्षा नहीं कर सकता-सब व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं । इस तथ्य को सम्यक प्रकार समझकर बुद्धिमानों को धर्म को ही एकमात्र शरण मानना चाहिये तथा इसी का सेवन करना चाहिये ॥३०॥ इति अशरणानुप्रेक्षा। दुःख रूपी हिंसक प्राणियों से भरे हुए इस अनादि संसार रूपी वन में दुःख से पीड़ित ये प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार परिभ्रमण किया करते हैं । भूख-प्यास आदि से दुःखी जीवों ने कर्म, आहार | ||२३० तथा पर्याय आदि के द्वारा अनन्त पुद्गलों को धारण किया । इस लोकाकाश में ऐसा कोई प्रदेश शेष नहीं है, जहाँ पर इस जीव ने अपने पाप कर्म के उदय से अनन्त बार जन्म न लिया हो, मरण न किया हो । उत्सर्पिणी काल का ऐसा कोई समय शेष नहीं है, जिसमें कर्मों के वशीभूत हुए इन जीवों की मृत्यु न हुई हो अथवा पुनः जन्में न हों । नरक गति तिर्यन्च गति मनुष्य गति तथा स्वर्ग में ग्रैवेयक तक ऐसी कोई योनि Fb PPF

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