Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 215
________________ FFFF अस्थि) बहुत ऊँचा था, उसकी काया जम्बूद्वीप के सदृश विशालकाय एवं गोलाकार थी । वह अनेक कार की लीला कर रहा था । उसका मस्तक गोल एवं समुन्नत था। वह गजराजों में अग्रगण्य था, कामनानुसार गमन करनेवाला था, अत्यन्त रूपवान था, उसका तालू सुचिक्कण एवं रक्तवर्णी था, उसकी सूंड सुदीर्घ थी, उसका स्वभाव सात्विक था, वह बलवान था, सुन्दर एवं मनोहर था, उसकी श्वास से सुगन्ध निर्गत हो रही थी। उसके ओष्ठ दीर्घ थे, शब्द गम्भीर था, मस्तक से मद झर कर उसकी काया में व्याप्त हो रहा था, अनेक शुभ लक्षणों से वह सुशोभित था, संचार करते (चलते) हुए पर्वत सदृश लगता था, उसका कण्ठप्रदेश माला से सुशोभित था तथा उस पर सुवर्ण की झूल पड़ी हुई थी, दो घण्टे उस पर लटक रहे थे, उससे मद का निर्झरना झर रहा था, वह कैलाश पर्वत के समतुल्य अथवा शरद ऋतु के मेघ के समतुल्य सुन्दर था एवं अपनी धवलता से उसने समस्त दिशायें धवल कर दी थीं । इस प्रकार विक्रिया से निर्मित दिव्य गजराज पर आरूढ़ तथा नम्रीभूत हुआ तेज की मूर्ति, महा उन्नत सौधर्म इन्द्र स्वर्ग से निकला । गजराज ऐरावत पर आरूढ़ सौधर्म इन्द्र अपनी कान्ति से ऐसा प्रतीत होता था, मानो उदयाचल पर्वत पर तेज का पुन्ज सूर्य ही विराजमान हो । उस गजराज ऐरावत के बत्तीस मुख थे, वे समस्त मुख एक समान थे एवं उन सब की कान्ति समान थी । प्रत्येक मुख में मूसल के समान मनोहर अष्ट-अष्ट दंत थे ॥२३०॥ प्रत्येक दंत पर निर्मल जल से परिपूर्ण एक-एक मनोहर सरोवर था, प्रत्येक सरोवर में एक-एक मनोहर कमलिनी थी एवं प्रत्येक कमलिनी पर विकसित (फूले हुए) बत्तीस पद्म पुष्प थे । एक-एक पद्म पर बत्तीस दल थे एवं प्रत्येक दल पर श्रीजिनेन्द्र भगवान की मंद स्मित मुद्रा में छवि थी, जिसकी भौहें सुन्दर थीं एवं उनमें प्रत्येक पर बत्तीसं अप्सरायें लय के साथ नृत्य कर रही थीं। उनके हास्य, श्रृंगार, हावभाव, लय आदि से युक्त रसभरे भव्य नृत्य को देखते हुए देवगण अत्यन्त प्रसन्न हो रहे थे। सौधर्म इन्द्र के संग दिव्य रूप को धारण करनेवाला प्रतीन्द्र भी विपुल विभूति के संग अपने वाहन पर || आरूढ़ होकर मानो युवराज के सदृश निकला था । आज्ञा ऐश्वर्य के अतिरिक्त श्रीजिनेन्द्र देव के समस्त गुण विभूति में इन्द्र के समतुल्य थे एवं इन्द्र भी जिन्हें मानता है, ऐसे सामानिक देव भी अपने-अपने इन्द्र के संग चल रहे थे । इन्द्र के पुरोहित, मन्त्री एवं अमात्यों के समतुल्य त्रयस्त्रिंशत जाति के तैंतीस देव भी इन्द्र के संग गमन कर रहे थे। जिन पर इन्द्र की विशेष कृपा रहती है एवं विभूति में जो सभासदों के सदृश

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