Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

View full book text
Previous | Next

Page 240
________________ . 4 4bFFF ऐसी विषमोचिका नामक पादुकाएँ थीं जो अन्य के पादस्पर्श होते ही विष वमन करती थीं । उन चक्रवर्ती के वीरांगद नामक रत्नों से निर्मित कंगन थे, जो विद्युत के वलय के सदृश भुजाओं में शोभायमान थे। अमृतगर्भ नामक उनका आहार था जो स्वादिष्ट, सुगन्धित एवं अत्यन्त रसीला था एवं जिसे चक्रवर्ती के अतिरिक्त अन्य कोई पचा भी नहीं सकता था । अमृतकल्प नामक हृदय को प्रसन्न करनेवाली सुपाच्य सुस्वादु औषध थी एवं रसायन के सदृश 'अमृत' नामक रसीला द्रव्य दिव्य पान था । रत्न, निधि, रानियाँ, पुर, शैय्या-आसन, सेना, नाट्य, भाजन, भोज्य तथा वाहन-ये दश प्रकार के भोगोपभोग कहलाते हैं । इनको भोगते हुए एवं सुखसागर में मग्न रहते हुए चक्रवर्ती को व्यतीत होनेवाले काल खण्ड (समय) का || कभी मान भी नहीं हो पाया । भगवान श्री शान्तिनाथ कभी तो तीर्थंकर नामकर्म के शुभ उदय से इन्द्रादि के द्वारा प्रस्तुत किये हुए सुख रूपी अमृत को भोगते थे एवं कभी चारित्र पालन कर सुखी होते थे । कभी अपने पुण्य कर्म के उदय से रमणी-रत्न, निधि आदि वस्तुओं के संग अनेक प्रकार का सुख भोगते थे । कभी कामदेव पद से उत्पन्न हुए अपने दिव्य निरामय (रोग रहित) रूप का निरीक्षण कर स्वयं सन्तुष्ट होते थे । इस प्रकार सुखी रूपी समुद्र में निमग्न वे भगवान पुण्य रूपी कल्पवृक्ष से उत्पन्न हुए सुख का अनुभव करते थे एवं इस प्रकार व्यतीत हुए कालखण्ड का अनुभव (भान) भी उन्हें कभी नहीं होता था। तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं कामदेव-इन तीनों पदवियों से अलंकृत उन भगवान को जो असीम सुख था, उसकी थाह ज्ञानी के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रवीण व्यक्ति नहीं पा सकता । इस प्रकार देवों के द्वारा भी पूज्य वे भगवान श्री शान्तिनाथ अपने पुण्य कर्म के उदय से रत्नों-निधियों आदि से प्रगट हुए चक्रवर्ती एवं कामदेव पद से उत्पन्न हुए उपमा रहित अपार एवं निमिषमात्र में उपलब्ध होनेवाले उत्तम सुखों का अनुभव करते थे । इस संसार में बिना धर्म के न तो तीर्थंकर को मुक्ति लक्ष्मी एवं अनन्त सुख प्राप्त होता है, न चक्रवर्ती को अपार सम्पत्ति एवं तीनों लोकों का प्रभुत्व प्राप्त होता है। धर्म के प्रभाव में न तो निधि या रत्न आदि |२२७ प्राप्त होते हैं, न तीनों लोकों में विस्तीर्ण होनेवाला यश प्राप्त होता है, न इन्द्र-नरेन्द्रों द्वारा मान्यता प्राप्त होती है एवं न लोकोत्तर सुख प्राप्त होते हैं । धर्म के बिना न धर्मसाधन में बुद्धि लगती है, न समग्र शास्त्रों के स्वाध्याय का सुयोग प्राप्त होता है । धर्म के बिना न तो जीवों को मोक्ष की प्राप्ति होती है एवं न इष्ट पदार्थों की सिद्धि ही होती है। यही समझ कर विवेकशील प्राणी को परलोक की सिद्धि के लिए 4 44

Loading...

Page Navigation
1 ... 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278