Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 226
________________ की कामना से उसने विक्रिया ऋद्धि के प्रयोग द्वारा अपने सहस्र नेत्र बना लिए । उस समय समस्त देव निमेष या टिमिकार रहित लोचनों से पुण्यराशि. के समूह सदृश भगवान के निर्मल रूप को देख रहे थे ॥७०॥ समस्त देवियाँ भी टिमिकार रहित नेत्रों से मणियों की खान सदश शांतिनाथ भगवान के अतिशय रूप का दर्शन कर रही थीं । तदनन्तर इन्द्रादिक देवों ने विराट माहात्म्य प्रगट कर भगवान की स्तुति करनी आरंम्भ की-'जिस प्रकार द्वितीया का चन्द्रमा प्रगट होकर प्राणियों को आनंद लेता है, उसी प्रकार हे देव! आप भी हम लोगों को परम आनंद देने के लिए ही प्रगट हुए हैं । हे देव ! आप का पुण्योदय सर्वोत्तम है। आप मिथ्यात्व एवं अज्ञान रूपी गर्त में गिरते हुए प्राणियों को धर्म रूपी हस्त का अवलम्बन प्रदान कर स्वयं कृपापूर्वक उनका उद्धार करेंगे । हे प्रभो ! जिस प्रकार आपके देह की किरणों से बाह्य अन्ध कार नष्ट हो गया है , उसी प्रकार मनुष्यों का अन्तरंग अन्धकार भी आपके वचनों से नष्ट हो जायेगा । || हे देव ! आप षोडश (सोलहवें) तीर्थंकर हैं, आप ही पंचम चक्रवर्ती हैं, आप ही कामदेव हैं, एवं आप ही मक्ति रूपी रमणी के पति हैं । हे नाथ ! आप जगत के स्वामी हैं, गरुओं के महागुरु हैं, धर्मतीर्थ को उत्पन्न करनेवाले हैं एवं सद्धर्म के प्रमुख मार्गदर्शक हैं । जिस प्रकार चन्द्रमा स्वयं निर्मल (स्वच्छ) है एवं वह समस्त पृथ्वी को धवल या श्वेत कर देता है, उसी प्रकार आप भी स्वयं पवित्र हैं एवं अपने परम गुणों से समस्त संसार को पवित्र करेंगे। हे प्रभो ! आपकी वचनामृत रूपी औषधि से अनेकानेक रोगी आरोग्य प्राप्त करेंगे । हे देव ! आप नख से शिख तक सम्यग्ज्ञानादिक समस्त गुणों परिपूर्ण हैं, इसीलिये रिक्त स्थान अभाव में ही मानो दोष आपसे दर पलायन कर गये हैं ॥८॥ हे देव ! आप बिना स्नान किए ही पवित्र | हैं तथापि आज इस मेरु पर्वत पर आपको स्नान कराया गया है, इसलिये हे प्रभो ! समस्त प्राणियों तथा पाप से मलिन हम लोगों को आप पवित्र कीजिये । हे देव ! आप तीनों ज्ञान रूपी नेत्रों को धारण करनेवाले हैं, इसलिये संसार में बुद्धिमान जीव आप को केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदयाचल मानते हैं । जिस प्रकार |२१३ खान से निकली हुई शुद्ध मणि भी उत्तम संस्कार के संसर्ग से अधिक दैदीप्यमान हो जाती है, उसी प्रकार अभिषेक तथा आभरणों के संसर्ग से आप भी अब अधिक दैदीप्यमान प्रतीत हो रहे हैं । मुनिगण आपको 'पुराण पुरुष' कहते हैं, 'पुराण कवि' बतलाते हैं, आपको बिना कारण का (निस्वार्थ) बन्धु कहते हैं, तीनों लोकों के प्राणियों के लिए पिता समतुल्य मानते हैं, समस्त जीवों के लिए हितकारक, पूज्य, सम्पूर्ण

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