Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ श्री शां ति ना थ पु रा ण इस तथ्य को हृदयगम कर बुद्धिमान प्राणियों को हृदय में सर्वदा धर्म को ही धारण करना चाहिये । जिस समय भगवान श्री शान्तिनाथ सिंहासन पर विराजमान थे उस समय उन्हें देख कर समस्त देवगण इस प्रकार कल्पना कर रहे थे- 'क्या यह चन्द्रमा है या पुण्य की राशि है अथवा निर्मल प्रकाश का पुन्ज है या स्वयं कामदेव है ? क्या यह देवों के द्वारा पूज्य इन्द्र है, या परब्रह्म है ? क्या चक्रवर्ती है, या धर्म की साक्षात् मूर्ति है ? ' जिन श्री शान्तिनाथ भगवान की इस प्रकार कल्पना की जाती रही, वे शान्तिनाथ भगवान हमें, आपको एवं समस्त चराचर को निरन्तर शान्ति प्रदान करें । धर्म से ही चक्रवर्ती पद प्राप्त होता है, धर्म से ही इन्द्र का उत्तम पद प्राप्त होता है, धर्म से ही मनुष्यगण द्वारा पूज्य तीर्थंकर पद प्राप्त होता है एवं धर्म से ही शाश्वत मोक्ष पद प्राप्त होता है । धर्म से ही जीवों को समस्त प्रकार की विभूतियाँ प्राप्त होती हैं एवं धर्म से ही मेरु पर्वत पर अभिषेक होता है, यही समझ कर विद्वानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए निर्मल धर्म का ही सेवन करना चाहिये । भगवान श्री शान्तिनाथ तीनों लोकों में शान्ति प्रदान करनेवाले हैं, मुनिराज भी श्री शान्तिनाथ का आश्रय लेते हैं, श्री शान्तिनाथ से श्रेष्ठ धर्म की प्रवृत्ति होती है । इसलिये मैं उन श्री शान्तिनाथ को नमस्कार करता हूँ। मुनियों को श्री शान्तिनाथ से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, शाश्वत मोक्ष - रमणी श्री शान्तिनाथ की ही है । हे श्री शान्तिनाथ ! आज से मैं आपमें ही अपना चित्त लगाता हूँ । हे प्रभो ! इस संसार में मुझे शान्ति दीजिये । श्री शान्तिनाथ पुराण में भगवान का जन्मावतरण और देवों के आगमन का वर्णन करनेवाला तेरहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥१३॥ चौदहवाँ अधिकार श्री शान्तिनाथ भगवान के चरित्र का वर्णन करने हेतु मुझे निर्मल बुद्धि एवं शान्ति प्रदान करने के लिए मैं भगवान को नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अथानन्तर- भावी तीर्थंकर भगवान के अभिषेक का दर्शन करने के लिए समस्त दिशाओं में अनुक्रम से समस्त देव पाण्डुक शिला को घेर कर बैठ गये । दिक्पाल देव अपनी निकायों के देवों के संग भगवान का अभिषेक देखने की अभिलाषा से भगवान के सिंहासन के चतुर्दिक बैठ गये । उस पाण्डुक वन में देवों की समस्त सेनायें आनन्द सहित चूलिका एवं मेरु पर्वत श्री शां ति ना थ पु रा ण २०८

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278