Book Title: Satik Gacchachar Prakirnak Sutram
Author(s): Purvacharya, Danvijya Gani
Publisher: Dayavijay Granthmala
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कुलगामनगररङ, पयहिय जो तेसु कुणश्हु ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी,संजमजोएण निस्सारो॥४॥ विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाह। सो धन्नो सो थ पुलोय, स बंधू मुक्खदायगो ॥५॥ स एव नवसत्ताणं, चवखूनूए विद्याहिए। दंसे जो जिणुद्दिटुं, अणुट्टाणं जहट्ठियं ॥२६॥ तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिण मयं पयासे।आणं अश्क्कमंतो, सो काउरिसो न सप्पुरिसो॥७॥ नट्ठायारो सूररी १, जट्ठायाराणुविस्कयो सूरीश नम्मग्गग्लिो सूरी ३,तिन्निवि मग्गं पणासंति॥श्ण॥ उम्मग्गठिए सम्मग्ग-नासए जो उ सेवए सूरी। नियमेणं सो गोश्रम! अप्पं पामेश् संसारे ॥ २९॥
कुलग्रामनगरराज्यं प्रहाय यस्तेषु करोति हु ममत्वम् । स नवरि लिङ्गधारी, संयमयोगेन निस्सारः॥२४॥ विधिना यस्तु चोदयति, सूत्रमर्थ च ग्राहयति । स धन्यः स च पुण्य एव, स बन्धुर्मोक्षदायकः॥२५॥ स एव भव्यसत्वानां, चक्षुर्भूतो व्याहृतः दर्शयति यो जिनोद्दिष्ट-मनुष्ठान यथास्थितम् ॥२६॥ तीर्थकरसमः सूरिः सम्यग् यो जिनमतं प्रकाशयति । आज्ञामतिक्रामन् स, कापुरुषः न सत्पुरुषः ॥२७॥ १०२ भ्रष्टाचार सूरिभ्रष्टाचारोपेक्षकः मूरिः। उन्मार्गस्थितः मूरिस्त्रयोऽपि मार्ग प्रणाशयन्ति ॥२८॥ १०३ उन्मार्गस्थितान् सन्मार्गनाशकान् यस्तु सेवते सूरीन् । नियमेन स गौतम ! आत्मानं पातयति संसारे ॥२९॥

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