Book Title: Satik Gacchachar Prakirnak Sutram
Author(s): Purvacharya, Danvijya Gani
Publisher: Dayavijay Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ गच्छा चार ॥२॥ FRFERFEAR PHFDF系 सीसो विवेरियो सोउ, जो गुरुं न विबोहए । पमायमइराघत्थं, सामायारी विराढ्यं ॥ १८ ॥ तुम्हा रिसा हि मुणिवर, पमायवसगा एवं ति जइ पुरिसा । तेएन्नो को म्हं, खालंबण हुन संसारे ॥ १९५॥ नाम दंसण मिय, चरणम्मि यतिसुवि समयसारेसु । चोए जो ठवेडं, गणमप्पाणं च सो श्र गण॥ ॥ २० पिं वहिं सिद्ध, उग्गमनप्पायऐसणासुद्धं । चारित्तरखखण्डा, सोहिंतो होइ सचरिती ॥ २१ ॥ परिसावीसम्मं, समपासी चेव होइ कोसु । सो रक्खइ चक्खुंपि व, सबालबुड्ढा उलं गां ॥२२॥ या विहार, सुसोलगुणेहिं जो बुद्धी । सो नवरि लिंगधारी, संजमजोए पिस्सारो ॥ २३ ॥ शिष्योऽपि वैरी स तु यो गुरुं न विबोधयति । प्रमादमदिराग्रस्तं, सामाचारीविराधकम् ॥ १८ ॥ युष्मादृशा अपि मुनिवर ! प्रमादवशगा भवन्ति यदि पुरुषाः । तेनान्यः कोऽस्माकमालम्बनं भविष्यति संसारे ॥ १९ ॥ ज्ञाने दर्शने च चरणे च त्रिष्वपि समयसारेषु । नोदयति यः स्थापयितुं, गणमात्मानं च स च गणी ॥ २० ॥ पिण्डमुपधिं शय्यां उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धम् । चारित्ररक्षणार्थं, शोधयन् भवति सचारित्री ॥ २१ ॥ अपरिश्रावी सम्यक्, समदर्शी चैव भवति कायषु । स रक्षति चक्षुरिव, सबालवृद्धाकुलं गच्छम् ॥ २२ ॥ सीदयति विहारं सुखशीलगुणैर्योऽबुद्धिकः । स नवरि लिङ्गधारी संयमयोगेन निस्सारः ॥ २३ ॥ प्रत मूलम् ॥ ॥२॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 316