Book Title: Satik Gacchachar Prakirnak Sutram
Author(s): Purvacharya, Danvijya Gani
Publisher: Dayavijay Granthmala
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मृलम्।।
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उम्मग्गठियोको वि नासए नवसत्तसंघाए।तं मग्गमणुसरंतं, जह कुत्तारो नरो होइ ॥ ३० ॥ उम्मग्गमग्गसंपट्ठिाण, साहूण गोधमा !नूणं । संसारो थ अणंतो, होश संमग्गनासीणं॥ ३१॥ सुळं सुसाहुमम्ग,कहमाणो व तश्वपकम्मि। अप्पाणं, श्यरो पुण, गिहत्थधम्माउ चुक्कति॥३शा | जइ नविसकं कालं,सम्मं जिणनासियं अणुट्ठाणं । तो सम्मं नासिका,जह नणिशंखीणरागेहिं॥३३॥ योसन्नो वि विहारे, कम्मं सोहेश सुल नबोही य । चरणकरणं विसुझं, उववूहिंतो परूवितो ॥३॥ सम्मग्गमग्गसंपट्ठियाण, साहूण कुणइ वच्छवं । योसहनेसऊोहि य, सयमन्नणं तु कारेश् ॥ ३५॥
उन्मार्गस्थित एकोऽपि नाशयति भव्यसत्त्वसङ्घातान् । तन्मार्गमनुसरन्तः यथा कुतारो नरो भवति ॥३०॥ १०४ उन्मार्गमार्गसम्पस्थितानां साधूनां गौतम ! नूनम् । संसारश्चानन्तो भवति सन्मार्गनाशिनाम् ॥३१॥ शुद्धं सुसाधुमार्ग कथयन् स्थापयति तृतीयपक्षे । आत्मानमितरः पुनो गृहस्थधर्माद्बष्ट इति ॥३२॥ यदि नापि शक्यं कर्तुं सम्यग् जिनभाषितमनुष्ठानम् । ततः सम्यग् भाषेत् यथा भणितं क्षीणरागैः ॥ ३३॥ अवसन्नोऽपि विहारे, कर्म शोधयति सुलभबोधिश्च । चरणकरणं विशुद्धं, उपबृंहयन् प्ररूपयन् ॥ ३४॥ सन्मार्गमार्गसंपस्थितानां, साधूनां करोति वात्सल्यम् । औषधभैषज्यैश्च स्वयं अन्येन तु कारयति ॥ ३५॥
॥३॥

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