Book Title: Satik Gacchachar Prakirnak Sutram
Author(s): Purvacharya, Danvijya Gani
Publisher: Dayavijay Granthmala
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बत्तीसगुणसममागएण तेण वि अवस्स कायवा। परसक्खिया विसोही, सुवि ववहारकुसलेण ॥१२॥ s/ जह सुकुसलो वि विजो, अलस्स कहेश्चत्तणो वाहिं। विज्जुवएसं सुच्चा, पन्ना सो कम्ममायर३ ॥१३॥
देसं खित्तं तु जाणित्ता, वत्थं पत्तं उवस्सयं । संगहे साहुवग्गं च, सुत्तत्थं च निहालई ॥ १४ ॥ संगहोवग्गहं विहिणा, न करेश अ जो गणी। समणं समणिं तु दिक्खित्ता, सामायारिं न गाहए ॥१५॥ बालाणं जो उ सीसाणं , जोहाए उवलिंपए। न सम्ममग्गं गाहेश सो सूरी जाण वेरियो ॥१६॥ जोहाए विलिहंतो, न नदयो सारणा जहिं नहि। दंमेण वि तामंतो, स नदयो सारणा जल॥१७॥
त्रिंशद्गुणसमन्वागतेन तेनापि अवश्यं कर्तव्या । परसाक्षिका विशोधिः सुष्वपि व्यवहारकुशलेन ॥ १२ ॥ यथा सुकुशलोऽपि वैद्योऽन्यस्य कथयति आत्मनो व्याधिम् । वैद्योपदेशं श्रुत्वा, पश्चात् स कर्म आचरति ॥ १३ ॥ देशं क्षेत्रं तु ज्ञात्वा वस्त्रं पात्रं उपाश्रयं । संगृह्णीत साधुवगै च, सूत्राथै च निभालयति ॥१४॥ संग्रहोपग्रह विधिना, न करोति च यो गणी। श्रमणं श्रमणी तु दीक्षित्वा, सामाचारों न ग्राहयेत् ॥१५॥ बालानां यः पुनः शिष्याणां, जिह्वया उपलिम्पेत् । न सम्यग् मार्ग ग्राहयति, स मूरिर्जानोहि वैरी ॥१६॥ जिह्वया विलिहन् न भद्रका सारणा यत्र नास्ति । दण्डेनापि ताडयन् स भद्रकः सारणा यत्र ॥१७॥

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