Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Author(s): Yudhishthir Mimansak
Publisher: Yudhishthir Mimansak

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Page 466
________________ व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार ૪૪o भाषातत्त्व और वाक्यपदीय - वाक्यपदीय प्राचीन भाषा विज्ञान का प्रमुख ग्रन्थ है । इसमें शब्द अर्थ और दोनों के सम्बन्ध का निरूपण दार्शनिक ढंग से किया गया है । यदि यह कहा जाए कि वैयाकरणों के दार्शनिक तत्त्वों का विशद विवेचन करने वाला सम्प्रति एकमात्र यही ग्रन्थ है, तो अत्युक्ति न होगी । २/५६ डा० सत्यकाम वर्मा ने वाक्यपदीय में विप्रकीर्ण भाषातत्त्व के अनेक पहलुओं पर आधुनिक भाषा विज्ञान के प्रकाश में स्वीय भाषातत्त्व और वाक्यपदीय नामक ग्रन्थों में सुन्दर विवेचन किया है परन्तु इसके साथ ही हमें यह लिखते हुए दुःख भी होता है कि डा० वर्मा ने वर्तमान भाषा विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में वाक्यपदीय की भारतीय १० आत्मा का बड़ी बेरहमी से हनन भी किया है । यह वाक्यपदीयकार के साथ महान् अन्याय है । वाक्यपदीय के व्याख्याता १. भर्तृहरि भर्तृहरि ने स्वयं अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ की विस्तृत स्वोपज्ञ १५ व्याख्या लिखी है । स्वोपज्ञ व्याख्या का परिमाण - भर्तृहरि की स्वोपज्ञ व्याख्या वाक्यपदीय के कितने भाग पर थी, यह कहना कठिन है तथापि हॅलाराज के 'काण्डद्वये यथावृत्ति सिद्धान्तार्थसतत्त्वतः । २० वचन से इतना व्यक्त है कि हेलाराज के समय दो काण्डों पर स्वोपज्ञवृत्ति उपलब्ध थी । सम्प्रति प्रथम काण्ड की यह वृति पूर्ण उपलब्ध है, और द्वितीय काण्ड की मध्य-मध्य में त्रुटित है । क्या तृतीय काण्ड पर भी वृत्ति थी - भर्तृहरि ने वाक्यपदीय २।२४ की स्वोपज्ञ व्याख्या में लिखा हैं 'कालस्यैव चोपाधिविशिष्टस्य परिमाणत्वात् कुतोऽस्वापरं परि-माणमित्येतत् कालसमुद्द ेशे व्याख्यास्यते । लाहौर सं०, पृष्ठ २० । इस पंक्ति से संदेह होता है कि हरि की स्वोपज्ञ व्याख्या तृतीय काण्ड पर भी रही होगी । २५

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