Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Author(s): Yudhishthir Mimansak
Publisher: Yudhishthir Mimansak

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Page 490
________________ २१५६ लक्ष्य-प्रधान काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि ४६५ रचना माना है। अनेक वैयाकरण अष्टाध्यायी से अप्रसिद्ध शब्दों का साधुत्व दर्शाने के लिये इस काव्य को पाणिनीय मानकर उद्धत करते पाश्चात्त्य विद्वानों ने 'इति+ह+आस' जैसे सत्य विषय में सर्वथा कल्पनात्रों से कार्य लिया है। ग्रन्थनिर्माण में मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल, ५ सूत्रकान आदि की कल्पना करके समस्त भारतीय वाङ्मय को अव्यवस्थित एवं कलुषित कर दिया है। वे समझते है कि पाणिनि सूत्रकाल का व्यक्ति है। उसके समय बहुविध छन्दोगुम्फित सरस सालङ्कृत ग्रन्थ की रचना नहीं हो सकती। क्योंकि उस समय सरस काव्य-निर्माण का प्रारम्भ नहीं हया था। ऐसे ग्रन्थों का समय सूत्रकाल १० के बहुत अनन्तर है। हम इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में अनेक प्राचीन प्रमाणों से सिद्ध कर चुके हैं कि भारतीय वाङ्मय में पाश्चात्त्य रीति पर किये कालविभाग की कल्पना उपपन्न नहीं हो सकती। जिन ऋषियों ने मन्त्र और ब्राह्मणों का प्रवचन किया था, उन्होंने ही धर्मसूत्र, आयुर्वेद, १५ व्याकरण और रामायण तथा महाभारत जैसे सरस सालङ्कृत महाकाव्यों की रचनाएं की। विषय और रचनाभेद से भाषा में भेद होना अत्यन्त स्वाभाविक है। हर्ष ने जो खण्डनखाद्य जैसे नव्यन्यायगुम्फित कर्णकटु ग्रन्थ की रचना की, वहां नैषध जैसा सरस मधर महाकाव्य भी बनाया। क्या दोनों में भाषा का अत्यन्त पार्थक्य २. होने से ये दोनों ग्रन्थ एक व्यक्ति की रचना नहीं है ? पाश्चात्त्य विद्वान् मन्त्रकाल को सबसे प्राचीन मानते हैं। क्या १. भाषावृत्ति २१४१७४, पृष्ठ १०६ । दुर्घटवृत्ति ४।३।२३, पृष्ठ ८२॥ २. देखो-प्रथम भाग पृष्ठ २१-२४ (च० संस्करण)। ३. द्र०-वात्स्यायन न्यायभाष्य २०१४६८, ४१६२॥ विशेष द्रष्टव्य २५ प्रथमभाग पृष्ठ २२-२४ (च० सं०) । ४. रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी एक शाखाप्रवक्ता थे । वाल्मीकिप्रोक्त शाखा के अनेक नियम तैत्तिरीय प्रातिशाख्य (१३६॥६॥४॥१५) में उपलब्ध होते हैं । महाभारतकर्ता कृष्ण द्वैपायन का शाखाप्रवक्तृत्व भारतीय इतिहास का सर्वविदित तथ्य है।

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