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चौपाई १६ मात्रा
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रतनन्त्रय
॥३॥
जाप ध्यान सुथिर न आवै, ताके करमचन्ध कट जावै । तास शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतन त्रय ध्यावें ॥२॥ ताकौ चहुँगतिके दुख नाहीं, सो न परं भव-सागर माहीं । जनम- जरा मृत दोष मिटावें, जो सम्यक रतन त्रय ध्यावें ||३|| सोई दशलच्छनको साथै, सो सोलह कारण आराधे । सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक् रतनन्त्रय यांवे ॥४॥ तीन लोकके सुख विलसेई । जो सम्यक् रतन त्रय ध्यावै ॥ ५ ॥ परमानन्द दशा विस्तारै । जो सम्यक् रतन त्रय वचन कहो नहिं
ध्यावै ॥ ६ ॥ जाय । सुसदाय ॥७॥
सोई शक्र - चक्रिपद लेई, सो रागादिक भाव बहावै, सोई लोकालोक निहारै, आप तिरै औरन तिरवावै, एक स्वरूप प्रकाश निज, तीन भेद
व्योहार सब, 'द्यानत' को
जैन पूजा पाठ सप्रह
ॐ ह्रीं सम्यकूत्नत्राय महाघं निर्वपामीति स्वाहा ।
आत्म निर्मलता
केवल शास्त्र का अध्ययन ससार बन्धन से मुक्त होने का राम-राम रटता है परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है । शास्त्रों का बोध होने पर भी जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का कोई कल्याण नहीं हो सकता ।
मार्ग नहीं । तोता इसी तरह बहुत से
- 'वर्णी वाणी' से