Book Title: Sanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 637
________________ उत्पादन और वितरणजन्य आर्थिक विषमताका सन्तुलन भी अपरिग्रह. वाद और सयमवादद्वारा दूर किया जा सकता है। आज उत्पादनके ऊपर एक जाति, समाज या व्यक्तिका एकाधिकार होनेसे उसे कच्चे मालका सचय करना पड़ता है तथा तैयार किये गये पक्के मालको खपानेके लिए विश्वके किसी भी कोनेके बाजारपर वह अपना एकाधिकार स्थापित कर शोषण करता है। इस शोषणसे आज समाज कराह रहा है। समाजका हर व्यक्ति त्रस्त है । किसीको भी शान्ति नही । स्वार्थपरताने समाजके घटक व्यक्तियोको इतना सकोर्ण बना दिया है, जिससे वे अपने ही आनन्दमे मग्न हैं । अतएव इजाओको नियमित कर जीवनमे सयमका आचरण करना परम आवश्यक है। समाजधर्मको चौथो सीढी : अहिंसाको विराट् भावना समाजमे सघर्षका होना स्वाभाविक है, पर इस सघर्षको कैसे दूर किया जाय, यह अत्यन्त विचारणीय है । जिस प्रकार पशुवर्ग अपने संघर्षका सामना पशवलसे करता है, क्या उसी प्रकार मनुष्य भी शक्तिके प्रयोग द्वारा सघर्षका प्रतिकार करे ? यदि मनुष्य भी पशुवलका प्रयोग करने लगे, तो फिर उसकी मनुष्यता क्या रहेगी ? अत. मनुष्यको उचित है कि वह विवेक और शिष्टताके साथ मानवोचित विधिका प्रयोग करे । वस्तुत अत्याचारीको इच्छाके विरुद्ध अपने सारे आत्मवलको लगा देना ही सघर्षका अन्त करना है, यही अहिंसा है। अहिंसा ही अन्याय और अत्याचारसे दीन-दुर्वलोको बचा सकती है। यही विश्वके लिये सुख-शान्ति प्रदायक है। यही ससारका कल्याण करने वाली है, यही मानवका सच्चा धर्म है और यही है मानवताकी सच्ची कसौटी। मानवको यह विकारजन्य प्रवृत्ति है कि वह हिंसाका उत्तर हिंसासे झट दे देता है । यह बलवान-बलवानको लडाई है । समाजमे सभी तो बलवान नही हाते । अत कमजोरोकी रक्षा और उनके अधिकारोकी प्राप्ति अहिंसाद्वारा ही सम्भव है । यह निर्वल, सवल, धनी, निर्धन, राक्षस और मनुष्य सभीका सहारा है । यह वह साधन है, जिसके प्रयोग द्वारा हिंसाके समस्त उपकरण व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं । पशुबलको पराजित कर आत्मवल अपना नया प्रकाश सर्वसाधारणको प्रदान करता है। इसमे सन्देह नही कि हिंसा विश्वमे पूर्ण शान्ति स्थापित करनेमे सर्वथा असमर्थ है। प्रत्येक प्राणीका यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह आरामसे खाये और जीवन यापन करे । स्वय 'जीओ और दूसरोको जीने दो', यह सिद्धान्त समाजके लिये सर्वदा उपयोगी है। पर आजका मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो वह स्वय तो जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोके तीर्थकर महावीर और उनकी देशना . ५८७

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