Book Title: Sanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 640
________________ लिए स्वाभाविक सम्मान जागृत करती है। इसका वास्तविक रहस्य यह है कि दूसरेके अधिकारोपर हस्तक्षेप करना उचित नहीं, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें सामाजिक या राष्ट्रीय हितकी भावनाको ध्यानमें रखकर अपने कर्तव्यका पालन करना गावश्यक है। यह भूलना न होगा कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण है, जो व्यक्तित्वकी वृद्धिके लिए आवश्यक और सहायक होता है। है। यदिइसका दुरुपयोग किया जाय तो समाजका विनाग अवश्यम्भावी हो जाय । अस्तेय-भावना एकाधिकारका विरोधकर समस्त समाजके अधिकारोंको सुरक्षित रखने पर जोर देती है। यह अविस्मरणीय है कि वैयक्तिक जीवनमे जो अधिकार और कर्तव्य एक दूसरेके आश्रित हैं वे एक ही वस्तुके दो रूप है। जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओका ख्यालकर अधिकारका उपयोग करता है, तो वह अधिकार समाजके अनुशासनमे हितकर बन कर्तव्य बन जाता है. और जब केवल वैयक्तिक स्वत्व रक्षाके लिए उसका उपयोग किया जाता है, तो उस समय अधिकार अधिकार ही रह जाता है। __ यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकारोपर जोर दे और अन्यके अधिकारोकी अवहेलना करे, तो उसे किसी भी अधिकारको प्राप्त करनेका हक नही है। अधिकार और कर्तव्यके उचित ज्ञानका प्रयोग करना हो सामाजिक जीवनके विकासका मार्ग है। अचौर्यको भावना इस समन्वयकी ओर ही इगित करती हैं। मनुष्यको आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं, जिनके फलस्वरूप शोषण और सवयवृत्ति समाजमे असमानता उत्पन्न कर रही है। व्यक्तिका ध्यान अपनी आवश्यकताओकी पूर्ति तक ही है। वह उचित और अनुचित ढगसे धनसचय कर अपनी कामनाओकी पूर्ति कर रहा है, जिससे विश्वमे अशान्ति है । अस्तेयको भावना उत्तरोत्तर आवश्यकताओको कम करती है। यदि इस भावनाका. प्रचार विश्वमे हो जाय, तो अनुचित ढगसे धनार्जनके साधन समाप्त होकर ससारकी गरीबी मिट सकती है। समाजमे शारीरिक चोरी जितनी की जा सकती है उससे कही अधिक मानसिक । दूसरोकी अच्छी वस्तुओको देखकर जो हमारा मन ललचा जाता है-या हमारे मनमे उनके पानेकी इच्छा हो जाती है, यह मानसिक चोरी है। द्रव्यचोरीकी अपेक्षा भावचोरीका त्याग अनिवार्य है, क्योकि भावनाएं ही द्रव्यचोरी करानेमे सहायक होती है। भोजन, वस्त्र और निवास आदि आरम्भिक शारीरिक आवश्यकताओसे अधिक संग्रह करना भी चोरीमे सम्मिलित है । यदि समाजका एक व्यक्ति आवश्यकतासे अधिक रखने लग जाय, तो स्वाभाविक ही है कि दूसरोको वस्तुएँ आवश्यकतापूतिके लिए भी नही मिल सकेंगी। ५९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा

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